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विकसित भारत की राह

21 वीं सदी की शुरुआत से पूर्व भारत के संदर्भ में दो बड़ी ही दिलचस्प और महत्वपूर्ण भविष्यवाणियाँ सुनने को मिलीं। 1998 में अमेरिका के प्रोफेसर जे. ए. रोजेन वेग ने अनुमान लगाया कि 2025 तक भारत विश्व में अमेरिका और चीन के बाद तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था होगा। फिर 1999 में भारतीय अर्थशास्त्री के. पारीख का अनुमान था कि 21वीं सदी में भारत विश्व में तेजी से विकसित हो रहे देशों में से एक देश के रूप में उभरेगा और 2047 तक इसकी प्रति व्यक्ति आय 30,000 अमेरिकी डॉलर तक पहुँच सकती है।उस समय ये अनुमान असामान्य लग रहे थे, लेकिन विकास दर में वृद्धि के साथ अब ऐसे अनुमान सामान्य लगते हैं। पिछले कुछ वर्षों से प्रधानमंत्री मोदी भारतीय अर्थव्यवस्था को तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने और 2047 तक भारत को विकसित देशों की श्रेणी में ले आने की बात रहे हैं। कोरोना महामारी ने इस लक्ष्य को प्राप्त करने में कुछ अवरोध अवश्य उत्पन्न किया, लेकिन भारत इस लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है, ऐसा बहुत सारे लोगों का मानना है।

एक विकसित देश कैसा हो, इसकी अलग-अलग परिभाषाएं और अनुमान हैं। विश्व बैंक की परिभाषा के अनुसार जिन देशों की प्रति व्यक्ति आय $13,800 या इससे अधिक है, उच्च आय वाले देशों की श्रेणी में आते हैं। भारत इस समय ‘निम्न मध्यम आय’ वाले देशों की श्रेणी में है, जिसकी प्रति व्यक्ति आय $2500 से थोड़ा सा अधिक है। जबकि चीन की प्रतिव्यक्ति आय लगभग $13,000 है और वह ‘उच्च मध्य आय’ वाले देशों की श्रेणी में है, बिलकुल ‘उच्च आय’ वर्ग के पास। भारत 2047 तक विकसित देश कैसे होगा, इसे लेकर भी कई तरह की बातें की जा सकती हैं। परंतु एक बात स्पष्ट है कि इसके लिए भारत को निरंतर तेज संवृद्धि बनाये रखनी होगी। वृद्धि दर के लिहाज से भारत जल्द ही विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था हो जाएगा। परंतु भारत जैसे देश में जहाँ की विशाल जनसंख्या है, प्रति व्यक्ति आय में तेजी से वृद्धि होना आवश्यक है। यदि हम तुलनात्मक रूप में देखें तो 1979 में भारत और चीन की अर्थव्यवस्थाएं लगभग बराबर स्थिति में थीं। 1990 में जहाँ भारत की  प्रति व्यक्ति आय $367 थी, वहीं चीन की प्रतिव्यक्ति आय $317 थी। विश्व में सकल घरेलू उत्पाद के लिहाज से चीन 11वीं और भारत 12वीं बड़ी अर्थव्यवस्था था। आज चीन की प्रति व्यक्ति आय भारत की प्रति व्यक्ति आय के मुकाबले लगभग पांच गुना ज्यादा है। 1979 से 2007 के बीच चीन की अर्थव्यवस्था लगभग 10प्रतिशत की औसत दर से बढ़ी है, जो कि एक रिकॉर्ड है। चीन की वास्तविक जीडीपी 1990 के दशक में 10प्रतिशत प्रति वर्ष की औसत दर से, 2000 के दशक में 10.4प्रतिशत की औसत दर से बढ़ी और 2010 तक चीन विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो गया-उसका जीडीपी 1990 की तुलना में 2010 में 15.4 गुना बढ़ गया। जबकि इसी अवधि में भारत की वास्तविक जीडीपी की वृद्धि दर क्रमशः 5.8 प्रतिशत और 6.3 प्रतिशत थी, भारत की जीडीपी में इस दौरान वृद्धि मात्र 5.2 गुना थी। 1990 में चीन की अर्थव्यवस्था जहाँ भारत से मात्र 1.2 गुना बड़ी थी, वहीं 2010 में 3.6 गुना और 2022 में  5.3 गुना बड़ी हो गई।2022 में भारत की नॉमिनल जीडीपी $3.4 बिलियन थी, जो कि 2007 में चीन के जीडीपी के बराबर है। 1990 से 2022 के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था में जहाँ 11 गुना वृद्धि हुई, वहीं चीन की अर्थव्यवस्था में असाधारण ढंग से 46 गुना तक वृद्धि हुई। निश्चित ही भारत और चीन की परिस्थितियों में काफी अंतर है। यहाँ नीतियों को उतनी कठोरता पूर्वक लागू नहीं किया जा सकता है। दूसरी अनेक लोकतांत्रिक प्रतिबद्धताएं और कमियां हैं। फिर भी यदि भारत को विकसित देश के रास्ते पर ले जाना है तो समृद्धि दर को अगले दो दशकों तक 8 प्रतिशत से अधिक बनाये ही रखना होगा ।

बढ़ते कदम

2047 तक देश को विकसित राष्ट्र होने के लिए केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि चार ‘आई’ की मदद से देश इस लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है : इन्फ्रास्ट्रक्चर यानी अधारिक संरचना, इन्वेस्टमेंट यानी निवेश, इनोवेशन यानी नवाचार और इन्क्लूसिवनेस यानी समावेशन। पिछले दो दशक से इन चारों बिंदुओं पर देश कार्य कर रहा है, परन्तु इसमें और तेजी लाने की आवश्यकता है। उन क्षेत्रों में भी निवेश को बड़े पैमाने पर बढ़ाने के उपाय हो रहे हैं जो कि आगे आने वाले वर्षों में बेहद महत्वपूर्ण होंगे, विशेषकर भविष्य के तकनीक विकास को देखते हुए। हम अपने आधारभूत संरचना को मजबूत, विश्वस्तरीय और प्रतियोगी बनाने में सफल हो रहे हैं। हमारा विनिर्माण क्षेत्र भी मजबूत होता जा रहा है। हालांकि अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। मेक इन इंडिया, मेड इन इंडिया और उत्पादन आधारित प्रोत्साहन ने स्थितियों में काफी सकारात्मक बदलाव लाया है।उन क्षेत्रों में भी हमारा उत्पादन और निर्यात बढ़ रहा है जिन क्षेत्रों में कुछ वर्ष पहले हम कल्पना तक नहीं कर सकते थे। परन्तु अभी भी वैश्विक विनिर्माण क्षेत्र के उत्पादन में हमारा हिस्सा मात्र 03 प्रतिशत है, जबकि चीन का हिस्सा 28 प्रतिशत से अधिक। वहीं विनिर्माण निर्यात में भारत का हिस्सा 2.7प्रतिशत है, जबकि चीन का हिस्सा 40प्रतिशत है। 2021 के बाद कोरोना में पैदा हुए संकट से सबक लेते हुए भारत आत्मनिर्भरता के रास्ते पर बढ़ रहा है और सरकारी क्षेत्र के उद्योगों को बेहतर बनाने के साथ-साथ उन सभी क्षेत्रों में उत्पादन को प्रोत्साहन देने की सरकार की योजना है, जिनका भारत आयात करता है और जिनके निर्यात को बढ़ा सकने की संभावना है। एक और महत्वपूर्ण कदम भारत ने उठाया है और वह अपनी मुद्रा रुपए में अंतरराष्ट्रीय व्यापार को धीरे-धीरे बढ़ावा देना। इससे निश्चित ही अमेरिकी डॉलर पर हमारी निर्भरता कम होगी और रुपया मजबूत होगा। वैसे लंबी अवधि तक उच्च टिकाऊ दर से वृद्धि हासिल करना आसान नहीं होगा। खासतौर पर आज के वैश्विक हालात को देखते हुए भारत को साहसी सुधारों की दिशा में पुन: बढ़ना होगा, ताकि इन संभावनाओं को बेहतर किया जा सके। फिर भी व्यापक स्तर पर कारोबारी सुगमता (इज आफ डूइंग बिसनेस ) बढ़ाने तथा मानव पूंजी को अधिक उत्पादक बनाने पर ध्यान देने की जरूरत है। जहां भौतिक अधोसंरचना तैयार करने के लिए अहम निवेश की जरूरत है, शिक्षा और स्वास्थ्य में सुधार भी तेज वृद्धि के लिए आवश्यक हैं। वस्तुत: सुधार तीन क्षेत्रों में होने आवश्यक हैं, मानव पूंजी निर्माण, नवाचार के लिए उचित वातावरण तैयार करना और शासन में सुधार जरूरी है।

पिछड़ा मानव संसाधन

मानव संसाधन के विकास में देश का पिछड़ा होना बेहद चिंता का विषय है। मानवीय क्षमताओं को बढ़ाने के लिए जितना प्रयास होना चाहिए था, उतना प्रयास नहीं हो सका। जिन देशों ने 70 के दशक में इन क्षमताओं को बढ़ाने के लिए प्रयास किए, वे 90 के दशक तक आते-आते अपनी अर्थव्यवस्थाओं में उच्च वृद्धि प्राप्त करने में बेहद सफल रहे। परंतु भारत संवृद्धि के ‘रिसन प्रभाव’ का इन्तजार करता रहा, परन्तु उसे त्वरित करने में लम्बे समय तक असफल रहा। बाद में गरीबी दूर करने के लिए तदर्थ नीतियां बनती रही, मानव पूंजी की क्षमता को बढ़ाने के लिए ठोस और सार्थक प्रयास नहीं हो सके। अभी भी मानव संसाधन विकास सूचकांक -जिसके तीन मुख्य सूचक है:प्रति व्यक्ति आय, शिक्षा और स्वास्थ्य-में भारत से 130 देश ऊपर हैं। प्रति व्यक्ति आय में समय के साथ वृद्धि हुई है, लेकिन वह इतनी नहीं हुई है कि देश के निचले वर्ग की आर्थिक स्थिति में महत्वपूर्ण सुधार कर सके। एक तो शुरू के दशकों में संमृद्धि दर काफी कम रही। दूसरे, इसका लाभ रिस रिसकर निचले वर्ग तक नहीं पहुंचा। निश्चित ही विकास के साथ गरीबी,बहुआयामी गरीबी में कमी आई है, परन्तु  महत्वपूर्ण यह है कि देश का प्रत्येक व्यक्ति इस योग्य हो जाए कि वह उपलब्ध संभावनाओं का अधिकतम और बराबर से लाभ उठा सके।

कमजोर कड़ी

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भारत की शिक्षा व्यवस्था अभी भी काफी पिछड़ी नजर आती है। नामांकन अनुपात भले ही बढ़ गया हो, परंतु शिक्षा की गुणवत्ता व्यापक तौर पर नहीं सुधर रही है। कुछ को छोड़ दें, तो अच्छे शिक्षण संस्थानों का अकाल है। आम लोगों के लिए अच्छी शिक्षा दुर्लभ और बहुत महंगी होती जा रही है। अच्छे बच्चों को अच्छे संस्थानों में प्रवेश के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है। यदि 14 से 18 वर्ष के एक चौथाई बच्चे कक्षा 02 के स्तर का साधारण पाठ भी नहीं पढ़ सकते हैं और आधे बच्चे कक्षा 02 के स्तर की गणित नहीं हल कर सकते हैं, तो इस स्थिति में हम विकसित देश बनने का सपना नहीं देख सकते हैं। एक तरफ चंद गिने हुए स्तरीय विश्वविद्यालय या शिक्षण संस्थान हैं, जिनसे निकलने वाले विद्यार्थी तुरंत ही तमाम बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा लपक लिए जाते हैं। दूसरी तरफ, बड़ी संख्या में ऐसे संस्थान हैं जहाँ सिर्फ डिग्रियां बांटी जा रही हैं। ऐसी अनेक रिपोर्ट हैं, जो बताती हैं कि हमारे 50प्रतिशत से अधिक स्नातक युवा कुशल या रोजगार के योग्य नहीं हैं। बेरोजगारी इतने बड़े पैमाने पर होते हुए भी अत्यधिक कुशलता वाले क्षेत्र में योग्य और कुशल लोगों की  कमी है। अभी हाल ही में भारत में बढ़ती असमानता पर एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट आई है, जिसमें यह निष्कर्ष निकाला गया है कि उदारीकरण के बाद निजी उद्यम में वृद्धि और पूंजी बाजारों में बढ़ोतरी से उच्च आय वर्ग के कुछ लोगों के हाथ में संपत्ति का संकेंद्रण हुआ है। सबसे नीचे की 50प्रतिशत जनसंख्या और मध्य की 40 प्रतिशत जनसंख्या का हिस्सा काफी कम है, और इसका मुख्य कारण गुणवत्ता आधारित व्यापक शिक्षा की कमी रही है। विकसित भारत के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने लोगों की क्षमता, उनकी उत्पादकता को बढ़ाएँ, उन्हें और अधिक कुशल होने के अवसर उपलब्ध कराएं। सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएँ भी भ्रष्टाचार का शिकार हैं और ज्यादातर कागजों तक सिमटी हैं। आम व्यक्ति नीम हकीमों के चक्कर में है। निजी अस्पतालों और डॉक्टरों ने लूट मचा रखी है। स्वास्थ्य सेवाओं में ठोस सुधार की स्थिति नहीं दिखती है। फिर भी यह उल्लेखनीय है कि शिशु मृत्यू दर में काफी कमी आई है और देश की जीवन प्रत्याशा में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है। आज वैश्विक भारत में स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण में बड़े पैमाने पर सार्वजनिक निवेश की आवश्यकता है तभी आम भारतीय उदारीकरण और वैश्वीकरण की मौजूदा लहर का लाभ ले सकता है। अनुसंधान और विकास पर भारत का व्यय विश्व औसत 1.8प्रतिशत से काफी कम है। भारत सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 0.6प्रतिशत ही अनुसंधान एवं विकास पर व्यय करता है। अनुसंधान एवं विकास पर व्यय, सार्वजनिक और विशेषकर निजी व्यय, बढ़ने की आवश्यकता है, तभी हम भविष्य में नवाचार को बढ़ावा दे सकेंगे।

कृषि क्षेत्र पर फोकस

1991 से 2022-23 के बीच सकल घरेलू उत्पाद की दीर्घकालिक वार्षिक वृद्धि दर लगभग 6.1प्रतिशत थी, जबकि कृषि उत्पादन की वृद्धि दर 3.3 प्रतिशत थी। इस दौरान सत्र की सबसे अच्छी वृद्धि दर मोदी सरकार के कार्यकाल में 2014 से लेकर 2024 के मध्य 3.6 प्रतिशत थी, जबकि इस दौरान सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर औसतन मात्र 5.9 प्रतिशत थी। कृषि क्षेत्र में कुल कार्यकारी जनसंख्या का लगभग 45 प्रतिशत अभी भी कार्य कर रहा है, जबकि सकल घरेलू उत्पादन में कृषि क्षेत्र का योगदान लगभग 18 प्रतिशत है। यदि पिछले तीन दशकों के अनुरूप ही कृषि व अन्य क्षेत्रों की वृद्धि हुई तो 2047 तक कृषि का हिस्सा सकल घरेलू उत्पाद में कम होकर मात्र 7-8 प्रतिशत रह सकता है, जबकि लगभग एक तिहाई कार्यकारी जनसंख्या कृषि क्षेत्र में कार्य कर रही होगी। यह स्थिति ठीक नहीं है। भारत कृषि की अतिरिक्त जनसंख्या को अधिक उत्पादक और बेहतर भुगतान वाले रोजगारों में ले जाने में अक्षम रहा है। अर्थव्यवस्था की त्वरित संवृद्धि के लिए आवश्यक है कि कृषि क्षेत्र से और अधिक लोगों को हटाकर उन्हें उच्च उत्पादकता वाले क्षेत्रों में खपाया जाए। इसलिए विकसित भारत के निर्माण में मुख्य जोर कृषि क्षेत्र की अतिरिक्त जनसंख्या के कौशल निर्माण पर होना चाहिए, उन्हें तेजी से आधुनिक रोजगार के योग्य बनाया जाए,उन्हें प्रशिक्षित किया जाए,अधिक उत्पादक बनाया जाय। यदि ऐसा नहीं होता है, तो विकसित भारत का निर्माण मात्र 20-25 प्रतिशत जनसंख्या तक अटक कर रह जाएगा, निम्न और मध्यम आय वर्ग इसके फायदों से अछूता रह सकता है। यह महत्वपूर्ण है कि यदि भारत में समृद्धि को समावेशी होना है, तो कृषि क्षेत्र की विकास दर और संपूर्ण रूप से कृषि क्षेत्र का विकास होना आवश्यक है। कृषि क्षेत्र में उत्पादकता को बढ़ाने के साथ पानी के उपयोग को नियंत्रित करने, भूमिगत जल को रिचार्ज करने के उपायों पर गंभीरता पूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। कृषि अनुसंधान एवं विकास, कृषि नवाचार और कृषि विस्तार पर अधिक ध्यान देने की साथ ही सिंचाई की नई और पर्यावरण मित्र तकनीकों का विकास और पानी बचत की तकनीकों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। कृषि क्षेत्र में विभिन्न उपेक्षित फसलों और क्षेत्रों पर ध्यान देकर इसे संपोषणीय विकास का माध्यम बनाया जा सकता। भारतीय कृषि को रसोई से लेकर खेत तक उच्च मूल्य वाली कृषि की ओर बढ़ना होगा; बागवानी, दुग्ध उत्पादन, मुर्गी पालन, मत्स्य पालन, इत्यादि पर ध्यान देना होगा, जोकि बाजार की मांग के अनुकूल हो। वैसी नीतियां और संस्थान भी होने चाहिए जो कृषि उत्पादों के विपणन को आसान बना देता हो और किसानों तथा उत्पादकों की अखिल भारतीय बाजार और निर्यात बाज़ारों तक पहुँच बना सकें।

उत्पादन को अधिक रोजगारपरक और रोजगार को उत्पादक बनाने की आवश्यकता

जीएसटी संग्रह लगातार बढ़ रहा है, जो देश में उत्पादन बढ़ने का परिणाम माना जा रहा है। परंतु वास्तविकता यह है कि उत्पादन में वृद्धि संतोषजनक नहीं है और इसीलिए रोजगार में भी तेजी से वृद्धि नहीं हो रही है। इसका एक अर्थ यह भी है कि अर्थव्यवस्था का औपचारीकरण तेजी से हो रहा है, जिससे कर चोरी के रास्ते कम हो रहे हैं। परन्तु इससे बहुत से असंगठित छोटे उद्योग प्रभावित हुए, एक बड़े वर्ग की आमदनी कम हुई, बेरोजगारी बढ़ी। काफी संख्या में युवाओं को उनकी क्षमता से कम काम करना पड़ रहा है, इसलिए उनकी उत्पादकता कम बनी हुई है। हाल ही में एक रिपोर्ट में कहा गया है कि शहरी और ग्रामीण दोनों इलाकों में वास्तविक मजदूरी में कमी आई है। 2012 और 2022 के बीच के आंकड़े दर्शाते हैं कि नियमित वेतन वाले कर्मचारियों की औसत मासिक वास्तविक आय में प्रति वर्ष लगभग एक प्रतिशत की गिरावट आई। 10 वर्ष की अवधि में यह 12,100 रुपये से कम होकर 10,925 रुपये रह गई। शहरी इलाकों का प्रदर्शन ग्रामीण भारत से खराब रहा। शहरी भारत में 2012 से 2022 के बीच वास्तविक वेतन औसतन 7.3 प्रतिशत गिरा, जबकि समान अवधि में ग्रामीण क्षेत्र में वास्तविक वेतन 3.8 प्रतिशत कम हुआ।लाखों लोगों को बहुआयामी गरीबी से बाहर निकाल लिया गया है और उनकी पहुंच स्वास्थ्य, शिक्षा, बैंक खातों आदि तक हुई है। इसके बावजूद वेतन और आय के स्तर में कमी से सवाल उठता है कि क्या सार्वजनिक सुविधाओं तक पहुंच आय की गरीबी दूर करने के लिए पर्याप्त है? महामारी के बाद सरकारी व्यय में वृद्धि से संवृद्धि दर में तेजी आयी, परन्तु इसके बावजूद देश में निजी निवेश कमजोर है। इससे रोजगार सृजन धीमा रहा है। भारत को अपनी श्रम शक्ति के लिए उत्पादक रोजगार तैयार करने की आवश्यकता है जो आय और जीवन स्तर को बढ़ाएंगे। इससे मांग सुधारने में मदद मिलेगी और संवृद्धि चक्र में बेहतरी आएगी। उत्पादन को और अधिक रोजगारपरक बनाने की आवश्यकता है। सेवा क्षेत्र आधारित संवृद्धि के रोजगार संबंधी लाभ रोजगार की मौजूदा चुनौतियों को पूरा कर पाने में सक्षम नहीं हैं। क्यूंकि उद्योग और विनिर्माण में अपेक्षाकृत कम कुशल श्रमिक शामिल होते हैं जो खेती जैसे काम से बाहर निकलते हैं। तेज तकनीकी विकास और उभरती विश्व व्यवस्था को देखते हुए संवृद्धि और रोजगार निर्माण के मानक तौर तरीके शायद भविष्य में काम न आएं। ऐसे में भारत को प्रत्येक अवसर का पूरा लाभ उठाते हुए अधिकतम रोजगार सृजन करने की तैयारी रखनी होगी।

संस्थागत और प्रशासनिक सुधार

भारत के संदर्भ में यह बात बड़ी महत्वपूर्ण है कि आर्थिक रूप से बेहतर विकास के बावजूद भारत प्रशासनिक और संस्थागत सुधारों के क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति नहीं कर पाया है, जो कि उच्च आर्थिक समृद्धि और विकास को बनाए रखने के लिए आवश्यक रहे हैं। गंभीर किस्म के सुधारों को जमीनी स्तर पर ले आने के लिए लंबी प्रक्रियाओं और प्रशासनिक गतिरोधों को कम करना आवश्यक है। भारत में प्रशासनिक सुधार आवश्यक है, जिससे नीतियों का उचित और पारदर्शी क्रियान्वयन संभव हो सके। लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत करके नीतियों का अधिक विकेंद्रीकरण भी आवश्यक है,  जिससे कि  सरकार और प्रशासन समाज के निचले वर्ग  की जरूरतों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हो सकें। यदि सरकार बाजार की शक्ति को नियंत्रित और विनियमित करने में सफल रहती है, अपने हस्तक्षेप की गुणवत्ता को बनाए रखती है तो राज्य आर्थिक नीति सही दिशा में कार्य करती है। परंतु यदि भ्रष्टाचार बढ़ता है तो निश्चित ही इससे न सिर्फ आर्थिक शक्ति का संकेंद्रण होगा बल्कि निम्न वर्ग की आय में कमी आएगी। इसलिए आवश्यक है कि किसी भी आर्थिक नीति में पारदर्शिता हो और शासन, प्रशासन स्वच्छ और प्रभावी हो। सरकार की सबसे बड़ी भूमिका ऐसे वातावरण का निर्माण करना होती है, जिसमें उद्योग धंधे तो फले-फूले ही, लोग जोखिम ले करके नए कार्यों को करने और नवाचार के लिए आगे आएं, विशेषकर युवा। इसमें सभी के लिए कुशलता हासिल करने का समान अवसर हो, इस प्रकार का वातावरण हो कि वह अनुसंधान और नवाचार की ओर आगे बढ़े। इसके लिए देश की अर्थव्यवस्था को दूसरी अर्थव्यवस्थाओं से और अधिक निकट लाने और सामंजस्य बैठाने की भी आवश्यकता होगी।

बढ़ती असमानता

एक और चिंता बढ़ती हुई असमानता है। थॉमस पीकेटी की अभी एक रिपोर्ट में यह सामने आया है कि भारत की एक प्रतिशत जनसंख्या के पास कुल संपत्ति का 40प्रतिशत से अधिक है और कुल आय में 22.6 प्रतिशत हिस्सा है। यह सत्य है कि पूंजीवादी विकास के रास्ते में असमानता बढ़ती है। परंतु भारत जैसे विकासशील देशों में ज्यादा महत्वपूर्ण है गरीबी में कमी करना और निचले वर्ग की आय में तेज वृद्धि करना। सरकार के साथ इसमें बड़े उद्योगपतियों की बहुत बड़ी भूमिका होती है, जोकि पूंजीसंचय करते हैं, पूंजी निर्माण करते हैं, रोजगार पैदा करते हैं और उत्पादन करते हैं। इसलिए बड़े उद्योगों को खलनायक के रूप में देखने की दृष्टि को छोड़ना होगा। महत्वपूर्ण यह है कि आर्थिक और सामाजिक आधारिक संरचना का बेहतर विकास कैसे हो, लोगों की शिक्षा, प्रशिक्षण और योग्यता कैसे बढे, उनके लिए अवसर कैसे बढ़ें, कृषि से लेकर विनिर्माण और सेवाओं में उत्पादकता और आय कैसे बढ़े, रोजगार कैसे बढ़े इसका प्रबंध जरूरी है। हाँ, पूंजी के अति संकेंद्रण को रोकने के लिए प्रभावी नीतियों और उसका प्रभावी क्रियान्वयन सरकार की जिम्मेदारी है।

भारत का तुलनात्मक लाभ

भारत के पास उच्च विकास दर हासिल करने और मानव संसाधन विकास के लिए पर्याप्त अवसर हैं। ये अवसर हाल के वर्षों में और अधिक उजागर हुए हैं। कम देश ऐसे हैं, जो भारत की तरह उत्पादन की तकनीकों, अंतरराष्ट्रीय व्यापार, पूंजी प्रवाह और कुशल श्रम शक्ति के अभूतपूर्व परिवर्तनों का लाभ उठाने की बेहतर स्थिति में हैं। आज भारत के पास अनेक देशों की तुलना में तुलनात्मक लाभ की स्थिति पहले की अपेक्षा कहीं बेहतर है। उसकी इस स्थिति को देखते हुए यह अनुमान किया जा सकता है कि अगले 20-25 वर्षों तक भारत की समृद्धि दर लगातार 7-8 प्रतिशत तक बनी रहेंगी। अर्थव्यवस्था की संवृद्धि दर जितनी ही अधिक होगी, राजस्व प्राप्ति भी अधिक होगी और वह सामाजिक सेवाओं पर होने वाले व्ययों को बढ़ा सकने में सक्षम होगी, लेकिन इसके लिए पर्याप्त इच्छा शक्ति आवश्यक है, न सिर्फ इसे लागू करने वाले राजनेताओं में,बल्कि जनता में भी।किसी भी देश की उन्नति के लिए लोगों की आय बढ़ते रहना बहुत आवश्यक  है, क्योंकि यही अंतत: मांग और फिर उत्पादन को बढ़ाता है। आय में वृद्धि होती रहे, इसके लिए उत्पादक रोजगार का बढ़ते रहना बहुत आवश्यक है। कुशलता आधारित उद्योग और धंधे ही विकास का मार्ग प्रशस्त करते हैं। अधिक सरकार और शासन वस्तुत: विकास में बाधा है। ये अंततः सत्ता के दबदबे को बढ़ाती है, प्रत्यक्ष रूप से इंस्पेक्टर राज को बढ़ावा देती है। आवश्यकता एक कुशल,ईमानदार और पारदर्शी शासन-प्रशासन की है, शासन के  हस्तक्षेप की गुणवत्ता को बढ़ाने की है। सही मायने में विकास तब कहा  जायेगा, जब अर्थव्यवस्था में संस्थागत परिवर्तन होंगे, संस्थाएँ अधिक मजबूत, लोकतान्त्रिक और पारदर्शी होंगी, विकास का लाभ समाज के सबसे कमजोर वर्गों तक पूरी तरह से पहुंचेगा, गरीबी समाप्त होगी, बेरोजगारी न्यूनतम होगी, असमानता में कमी आएगी। महत्वपूर्ण बात यह है कि देश में सभी लोगों के सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक जीवन में सुधार आवश्यक है। राज्य और सार्वजनिक नीति की भूमिका यहीं बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है।

– डॉ. उमेश प्रताप सिंह

प्रोफेसर, अर्थशास्त्र

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