अब यूपी का दिल जीतने की जरूरत

जीत छोटी हो या बड़ी, उसका जश्न तो बनता ही है। हार और जीत दोनों ही मायने रखती है। जो जीतता है, वह जीत का बखान करता है और जो हारता है, वह पराजय का बचाव करता है। उत्तर प्रदेश में भी इन दिनों कुछ ऐसा ही माहौल है। जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव के बाद क्षेत्र पंचायत चुनाव में भी कमल जमकर खिला। समाजवादी पार्टी की साइकिल फर्राटा नहीं भर पाई। जिला पंचायत सदस्यों के चुनाव में अपने समर्थकों की जीत का दावा करते वक्त समाजवादी पार्टी के नेताओं ने जहां योगी सरकार की नीतियों पर जमकर आक्षेप किए थे, वहीं जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव का गणित बदलते ही उनके सुर बदल गए।

भाजपा ने 75 में से 67 जिला पंचायत अध्यक्ष पद जीत लिए जबकि क्षेत्र पंचायत अध्यक्ष के 825 पदों में से 648 पर भाजपा का भगवा परचम लहरा गया है। बकौल मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, भाजपा ने ब्लॉक प्रमुख के चुनाव में सिर्फ 735 पदों पर ही अपने उम्मीदवार उतारे थे। इस लिहाज से देखा जाए तो यह भाजपा की शानदार जीत है। प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक ने इसे सरकार की जनहितकारी नीतियों और विकास कार्यों पर जनसहमति की मुहर करार दिया है।

इसके विपरीत सपा प्रमुख अखिलेश यादव और अन्य विपक्षी दल इसे लोकतंत्र की हत्या और प्रशासन का दुरुपयोग बता रहे हैं। इस चुनाव में जिस तरह उपद्रव हुए। अभद्रता, मारपीट, फायरिंग और पत्थरबाजी हुई, उसे लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। एडीजी कानून व्यवस्था प्रशांत कुमार यह कहकर अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते कि इस चुनाव में पिछले पंचायत चुनाव से कम हिंसक घटनाएं हुई हैं। यह कोई तर्क नहीं है। पुलिस प्रशासन को यह तो मानना ही होगा कि जो कुछ हुआ, वह ठीक नहीं हुआ। इससे प्रदेश की विधि व्यवस्था पर सवाल उठे हैं। आंकड़ों की जुमलेबाजी में अपराध की मीमांसा उचित नहीं है।

लखीमपुर में महिला की साड़ी खींचने वाले किस दल के थे, यह उतना मायने नहीं रखता, जितना यह कि अपने लाभ के लिए लोग कितना नीचे गिर सकते हैं। इसलिए इस चुनाव में कौन जीता, कौन हारा, यह उतनी अहमियत नहीं रखता जितना यह कि इन अप्रिय हरकतों से बचा जा सकता था। किसी अधिकारी को उपद्रवी थप्पड़ मारें या कोई अधिकारी कानून को अपने हाथ में ले, अपने मातहत को पीटे या किसी पत्रकार पर डंडे बरसाए, ये स्थिति अत्यंत निंदनीय है। जो विपक्षी दल इस जीत में लोकतंत्र की हत्या के दीदार कर रहे हैं, उन्हें अपने शासन काल में हुई चुनावी घटनाओं को भी याद करना चाहिए।

इस चुनावी जीत को 2022 के आसन्न विधानसभा चुनाव का लिटमस टेस्ट माना जाए या नहीं, इस पर भी राजनीतिक दलों को मंथन करना चाहिए। वैसे भी पंचायत चुनाव में हार-जीत के अपने मनोवैज्ञानिक प्रभाव होते हैं लेकिन जरूरी नहीं कि ये नतीजे विधानसभा या लोकसभा जैसे बड़े चुनावों पर भी असर डालें। ऐसा माना जाता है कि पंचायत चुनाव तो सत्तापक्ष ही जीतता है। अगर ऐसा होता तो बसपा और सपा की हार तो होती ही नहीं। वर्ष 2011 में जब यूपी में मायावती सरकार थी, तब बसपा के 60 से अधिक जिला पंचायत अध्यक्ष जीते थे। 2016 में जब त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव हुए तब उत्तर प्रदेश के मुखिया अखिलेश यादव थे। उस चुनाव में सपा के 63 जिला पंचायत अध्यक्ष जीते थे।लेकिन विधानसभा चुनाव में न सपा जीत पाई और न बसपा। इसलिए इन चुनावों को लेकर बहुत उत्साहित होने की वैसे भी जरूरत नहीं है।

भाजपा को जीत का जश्न मनाना चाहिए लेकिन जीत की इस निरंतरता को बनाए रखने के प्रयास भी करने चाहिए। जनता की समस्याओं के समाधान की दिशा में काम करने चाहिए। उसे महंगाई से निजात दिलाने की कोशिश करनी चाहिए। प्रधानमंत्री आवास योजना के आवासों के आवंटन तो हो गए, उनकी चाभी आवंटियों को मिले, इसके प्रयास करने चाहिए। विज्ञापन ही न निकलें, नियुक्तियां भी हों, इस बात के बंदोबस्त होने चाहिए। कारोबारी सुगमता बढ़े, लोगों को लगे कि सरकार उनके साथ खड़ी है, इस दिशा में सरकार और संगठन दोनों को आगे बढ़ना चाहिए।

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जनता के हितों का ध्यान रखे बगैर कोई पार्टी अपने वोटबैंक को सहेज पाने में सफल नहीं होती। इसलिए भी मौजूदा समय इतराने का नहीं, आत्ममंथन का है क्योंकि विधानसभा चुनाव आम जनता का होता है। विधानसभा चुनाव जीतना है तो जनता का दिल जीतना होगा और दिल जीतने की पहली शर्त है, जनता के काम करना।

सियाराम पांडेय