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निर्जला एकादशी व्रत महिमा

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ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी ‘निर्जला एकादशी’ कहलाती है। अन्य महीनों की एकादशी को फलाहार किया जाता है, परन्तु इस एकादशी को फल तो क्या जल भी ग्रहण नहीं किया जाता। यह एकादशी ग्रीष्म-ऋतु में बड़े कष्ट और तपस्या से की जाती है। अतः अन्य एकादशियों से इसका महत्व सर्वोपरि है। इस एकादशी के करने से आयु और आरोग्य की वृद्धि तथा उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है। महाभारत के अनुसार, अधिमास सहित एक वर्ष की छब्बीसों एकादशियां न की जा सकें तो केवल निर्जला एकादशी का ही व्रत कर लेने से पूरा फल प्राप्त हो जाता है।

वृषस्थे मिथुनस्थेअर्के शुक्ला ह्योदशी भवेत।
ज्येष्ठे मासि प्रयत्नेन सोपोष्या जलवर्जिता।।
स्नाने चाचमने चौव वर्जयेन्नोदकं बुधः।
संवत्सरस्य या मध्ये एकादश्यो भवन्त्युत।।
तासां फलमवाप्नोति अत्र मे नास्ति संशयः।

निर्जला व्रत करने वाले को अपवित्र अवस्था में आचमन के सिवा बिन्दु मात्र भी जल ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि किसी प्रकार जल उपयोग में ले लिया जाए तो व्रत भंग हो जाता है। निर्जला एकादशी को संपूर्ण दिन-रात निर्जल व्रत रहकर द्वादशी को प्रातः स्नान करना चाहिए तथा सामर्थ्य के अनुसार सुवर्ण और जलयुक्त कलश का दान करना चाहिए। इसके अनंतर व्रत का पारायण कर प्रसाद ग्रहण करना चाहिए।

भीमसेनी एकादशी

पांडवों में भीमसेन शारीरिक शक्ति में सबसे बढ़-चढ़कर थे। उनके उदर में वृक नाम की अग्नि थी इसीलिए उन्हें वृकोदर भी कहा जाता है। वे जन्मजात शक्तिशाली तो थे ही, नागलोक में जाकर वहां के दस कुण्डों का रस पी लेने से उनमें दस हजार हाथियों के समान शक्ति हो गई थी। इस रसपान के प्रभाव से उनकी भोजन पचाने की क्षमता और भूख भी बढ़ गई थी। सभी पांडव तथा द्रौपदी एकादशियों का व्रत करते थे, परन्तु भीम के लिए एकादशी व्रत दुष्कर थे। अतः व्यास जी ने उनसे ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत निर्जल रहते हुए करने को कहा तथा बताया कि इसके प्रभाव से तुम्हें वर्ष भर की एकादशियों के बराबर फल प्राप्त होगा। व्यास जी के आदेशानुसार भीमसेन ने इस एकादशी का व्रत किया। इसलिए यह एकादशी ‘भीमसेनी एकादशी’ के नाम से जाना जाता है।

लोकेंद्र चतुर्वेदी ज्योतिर्विद

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