Home फीचर्ड शीर्ष अदालत की तल्खी को समझने की जरूरत

शीर्ष अदालत की तल्खी को समझने की जरूरत

सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले तीन दिनों में चौंकाने वाले निर्णय दिए हैं। इससे राजनीति में सुधार को लेकर उसकी गंभीरता का पता चलता है। इसमें संदेह नहीं कि सर्वोच्च न्यायालय की हालिया सख्ती ने राजनीतिक दलों के हौसले पस्त कर दिए हैं, लेकिन इसके बावजूद राजनीतिक दल कोई खास सबक लेंगे, इसके आसार कम ही हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस थानों की भूमिका पर जहां नाराजगी जाहिर की है, वहीं कुछ राज्यों में सांसदों, विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ दर्ज मुकदमे वापस लिए जाने पर भी देश की शीर्ष अदालत ने एतराज जाहिर किया है और व्यवस्था दी है कि राज्य कानून निर्माताओं के विरुद्ध दर्ज मामले उच्च न्यायालयों की अनुमति के बिना वापस नहीं ले सकते। उच्चतम न्यायालय ने इस बावत राज्य अभियोजकों की शक्ति भी घटाई है।

बिहार विधानसभा चुनाव के प्रत्याशियों के आपराधिक विवरण सार्वजनिक न करने से नाराज शीर्ष अदालत ने भाजपा, कांग्रेस ,जदयू, आरजेडी ,एलजेपी और सीपीआई पर एक-एक लाख और एनसीपी और सीपीएम पर पांच-पांच लाख का अर्थदंड लगाया है बल्कि इस आशय के निर्देश भी दिए हैं कि राजनीतिक दलों को प्रत्याशियों के चयन के दो दिन के भीतर उम्मीदवारों का आपराधिक रिकॉर्ड अपनी वेबसाइट ही नहीं, दो अखबारों में भी न केवल प्रकाशित कराना होगा बल्कि उम्मीदवार चयन के 72 घंटे के अंदर इसकी रिपोर्ट चुनाव आयोग को भी देनी होगी। कोर्ट ने इस बावत फरवरी 2020 के अपने फैसले में तब्दीली भी की है। फरवरी, 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि उम्मीदवार के चयन के 48 घंटे के अंदर या फिर नामांकन दाखिल करने की पहली तारीख से दो हफ्ते पहले उम्मीदवारों की पूरी जानकारी देनी होगी लेकिन गत माह सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिक्रिया थी कि इसकी संभावना कम ही है कि अपराधियों के राजनीतिक प्रवेश और उनके चुनाव लड़ने पर रोक के लिए विधानमंडल कुछ करेगा।

प्रधान न्यायाधीश एन वी रमना, न्यायमूर्ति विनीत सरन और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की त्रिसदस्यीय पीठ ने केंद्र सरकार और सीबीआई जैसी एजेंसियों द्वारा स्थिति रिपोर्ट दायर नहीं करने पर नाराजगी तो जाहिर की ही है, नेताओं के विरुद्ध दर्ज मामलों की निगरानी के लिए उच्चतम न्यायालय में एक विशेष पीठ की स्थापना के संकेत भी दिए हैं। कुछ लोग सर्वोच्च न्यायालय के इन निर्णयों में व्यवस्थापिका और न्यायपालिका के बीच टकराव की गंध महसूस कर सकते हैं लेकिन शीर्ष अदालत का यह आदेश बेहद अहम है। वह इसलिए भी कि उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्यों ने भारतीय दंड विधान की धारा 321 का प्रयोग कर नेताओं के विरुद्ध दर्ज आपराधिक मामलों को वापस लेने का अनुरोध किया था और कई जगह तो मुकदमे वापस हो भी गए हैं। यह धारा दरअसल अभियोजकों को मामले वापस लेने की शक्ति देती है।

उत्तर प्रदेश सरकार ने संगीत सोम, सुरेश राणा, कपिल देव और नेत्री साध्वी प्राची के विरुद्ध अभियोजन वापस लेने का अनुरोध कर रही है। अन्य राज्यों द्वारा भी मामले वापस लेने की मांग की गई है। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय की नाराजगी स्वाभाविक है। कदाचित इसीलिए उसने निर्देश दिया है कि सांसद और विधायक के विरुद्ध कोई भी अभियोजन उच्च न्यायालय से अनुमति लिए बिना वापस नहीं लिया जा सकता।

एक अन्य आदेश में न्यायालय ने यह भी कहा है कि सांसदों और विधायकों के विरुद्ध मामले की सुनवाई कर रहे विशेष अदालतों के न्यायाधीशों का अगले आदेश तक स्थानांतरण सेवानिवृत्ति और मौत जैसे अपवादों को छोड़कर नहीं किया जाएगा। उच्चतम न्यायालय ने सभी उच्च न्यायालयों के रजिस्ट्रार जनरलों को निर्देश दिया कि वे कानून निर्माताओं के विरुद्ध उन मामलों की जानकारी, एक तय प्रारूप में सौंपें, जिनका निपटारा हो चुका है। पीठ ने उन मामलों का भी विवरण मांगा है जो निचली अदालतों में लंबित हैं।

सर्वोच्च न्यायालय में भाजपा नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय द्वारा 2016 में दायर एक जनहित याचिका इस मुददे पर दायर की गई है। इस याचिका में सांसदों और विधायकों के विरुद्ध आपराधिक मामलों की त्वरित सुनवाई तथा दोषी ठहराए गए नेताओं को आजीवन चुनाव लड़ने से रोकने का निर्देश देने का अनुरोध किया गया था।

उच्चतम न्यायालय ने माना है कि देश में बढ़ते राजनीतिक प्रदूषण को लेकर न तो सरकारें गंभीर हैं और न ही राजनीतिक दल। शीर्ष अदालत ने बेहद तल्ख लहजे में कहा है कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को विधि निर्माता बनने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए, लेकिन न्यायालय द्वारा राजनीति में ऐसे व्यक्तियों की संलिप्तता निषेध करने के लिए आवश्यक संशोधन पेश करने के बारे में की गई तमाम अपीलों पर सरकार ने चुप्पी सी साध रखी है। न्यायालय ने यह भी कहा है कि उसके हाथ बंधे हुए हैं और वह विधायी कार्यों के लिए निर्धारित क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं कर सकती, लेकिन वह कानून निर्माताओं की अंतरात्मा को जगाने की अपील तो कर ही सकती है। उम्मीद कर सकती है कि वे जल्द ही जागेंगे और राजनीति में अपराधीकरण की कुप्रथा को खत्म करने के लिए एक बड़ी सर्जरी करेंगे।

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शीर्ष अदालत की इस चिंता को सामान्य रूप से नहीं लिया जाना चाहिए। लोकतांत्रिक मूल्यों का देश में जिस तरह ह्रास हो रहा है, वह बेहद चिंताजनक है। इस पर देश के हर आम और खास को सोचना होगा। राजनीतिक दल अगर किसी आपराधिक छवि के व्यक्ति को उम्मीदवार बनाते हैं तो उसे चुनने या न चुनने का अधिकार इस देश की जनता को है लेकिन जब देश में जाति आधारित चुनाव होंगे और सभी दल जातीय समीकरणों को प्रोत्साहित करने में रुचि लेंगे। योग्यता को उचित तरजीह न देते हुए सुविधा का संतुलन भर देखा जाएगा तो इस तरह के निर्णय आने स्वाभाविक हैं। हुक्मरानों और राजनीतिक दलों को सर्वोच्च न्यायालय की चिंता पर मंथन करना चाहिए जिससे कि बेदाग छवि के लोग ही संसद और विधानमंडलों में पहुंच सकें और जनहित में निर्णय ले सकें।

सियाराम पांडेय

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