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पितृदोष या प्रेतबाधा का स्वरूप तथा मुक्ति के उपाय

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गरूड़ पुराण में धर्मकाण्ड के अन्तर्गत पितृदोष या प्रेत बाधा से सम्बन्धित गरूड़ एवं भगवान कृष्ण का संवाद है। जिसमें गरूड़ द्वारा विविध प्रकार की जिज्ञासा व्यक्त की गयी है और भगवान श्रीकृष्ण द्वारा उसका समाधान बताया गया है। श्रीगरूड़ ने कहा- हे प्रभो! प्रेतयोनि में जो कोई भी प्राणी जाते हैं, वे कहां वास करते हैं ? प्रेतलोक से निकलकर वे कैसे और किस स्थान में चले जाते हैं ? चौरासी लाख योनियों से परिव्याप्त, यम तथा हजारों भूतों से रक्षित होने पर भी प्राणी नरक से निकलकर कैसे इस संसार में विचरण करते हैं ? इसे आप बताने की कृपा करें।
श्रीकृष्ण ने कहा- हे पक्षिराज् जहां प्रेतगण निवास करते हैं, उसको तुम सुनो। छल से पराये धन और परायी स्त्री का अपहरण तथा द्रोह से मनुष्य निशाचर-योनि को प्राप्त होते हैं। जो लोग अपने पुत्र के येन-केन प्रकारेण हितचिन्तन में ही अनुरक्त रहते हैं तथा सभी प्रकार का पाप करते हैं, वे शरीररहित होकर भूख-प्यास की अथाह पीड़ा को सहन करते हुए यत्र-तत्र भटकते रहते हैं। वे वायुरूपी प्रेत चोर के समान उस पितृलोक यात्रा के मार्ग के लिये पितृभाग में दिये गये जल का अपहरण करते हैं। तदन्तर पुनः अपने घर-परिवार में वायुरूप में आकर वे मित्र के रूप में प्रविष्ट हो जाते हैं और वहीं पर रहते हुए स्वयं रोग-शोक आदि की पीड़ा से ग्रसित होकर सब कुछ देखते रहते हैं। वे एक दिन का अन्तराल देकर आने वाले ज्वर का रूप धारण करके अपने सम्बन्धियों को पीड़ा पहुंचाते हैं अथवा तिजरिया ज्वर बनकर और शीत-वातादि से उन्हें कष्ट देते हैं। उच्छिष्ट अर्थात् जूठे अपवित्र स्थानों में निवास करते हुए उन प्रेतों के द्वारा सदैव अभिलक्षित प्राणियों को कष्ट देने के लिये श्शिरोवेदनाश्, श्विषूचिकाश् तथा नाना प्रकार के अन्य बहुत से रोगों का रूप धारण कर लिया जाता है। इस प्रकार वे दुष्कर्मी प्रेत नाना दोषों में प्रवृत्त होते हैं।
गरूड़ ने कहा- हे प्रभो! वे प्रेत किस रूप से किसका क्या करते हैं ? किस विधि से उनकी जानकारी प्राप्त की जा सकती है ? क्योंकि वे न कुछ कहते हैं, न बोलते हैं ? हे ऋषिकेश! यदि आप मेरा कल्याण चाहते हों, तो मेरे मन के इस व्यामोह को दूर कर दें। इस कलिकाल में प्रायः बहुत से लोग प्रेतयोनि को ही प्राप्त होते हैं।

श्रीकृष्ण ने कहा- हे गरूड़! प्रेत होकर प्राणी अपने ही कुल-परिवार को पीड़ित करता है, वह दूसरे कुल के व्यक्ति को तो कोई आपराधिक छिद्र प्राप्त होने पर ही पीड़ा देता है। जीते हुए तो वह प्रेमी की तरह दिखायी देता है, किन्तु मृत्यु होने पर वही दुष्ट बन जाता है। जो भगवान् विष्णु या श्रीरूद्र के मन्त्र का जप या रूद्राभिषेक करता है। दान, धर्म में अनुरक्त रहता है, देवता, पितरों और अतिथि की पूजा करता है, सत्य तथा प्रिय बोलने वाला है, उसको प्रेत पीड़ा नही दे पाते हैं। जो व्यक्ति सभी प्रकार की धार्मिक क्रियाओं से परिभ्रष्ट हो गया है, नास्तिक है, देवता, पितरों व धर्म की निन्दा करने वाला है और सदैव असत्य बोलता है, और महाक्रोधी है उसी को प्रेत कष्ट पहुंचाते हैं। हे तार्क्ष्य ! कलिकाल में अपवित्र क्रियाओं को करने वाला प्राणी प्रेतयोनि को प्राप्त होता है। हे काश्यप ! इस संसार में उत्पन्न एक ही माता-पिता से पैदा हुए बहुत से संतानों में एक सुख का उपभोग करता है, एक पाप कर्म में अनुरक्त रहता है, एक संतानवान् होता है, एक प्रेत से पीड़ित रहता है और एक पुत्र धन-धान्य से सम्पन्न रहता हैं, एक का पुत्र मर जाता है, एक के मात्र पुत्रियां होती हैं। प्रेतदोष के कारण बन्धु-बान्धवों के साथ विरोध होता है। प्रेतयोनि के प्रभाव से मनुष्य को संतान नही होती। यदि संतान उत्पन्न भी होती है तो वह मर जाती है। प्रेतबाधा के कारण तो व्यक्ति पशुहीन और धनहीन हो जाता है। उसके कुप्रभाव से उसकी प्रकृति में परिवर्तन आ जाता है, वह अपने बन्धु-बान्धवों से शत्रुता रखने लगता है। अचानक प्राणी को जो दुःख प्राप्त होता है, वह प्रेतबाधा के कारण होता है। नास्तिकता, जीवन-वृत्ति की समाप्ति, अत्यन्त लोभ तथा प्रतिदिन होने वाले कलह-यह प्रेत से पैदा होने वाली पीड़ा है। जो पुरूष माता-पिता की हत्या करता है, जो देवता, पितरों और ब्राह्मणों की निन्दा करता, उसे हत्या का दोष लगता है। यह पीड़ा प्रेत से पैदा होती है। नित्य-कर्म से दूर, जप-होम से रहित और पराये धन का अपहरण करने वाला मनुष्य दुखी रहता है, इन दुःखों का कारण भी प्रेतबाधा ही है।

अच्छी वर्षा होने पर भी कृषि का नाश होता है, सामाजिक व्यवहार नष्ट हो जाता है, समाज में कलह उत्पन्न होता है, ये सभी कष्ट प्रेतबाधा से ही होते है। हे पक्षीराज! मार्ग में चलते हुए व्यक्ति को सहसा जो बवंडर से पीड़ा होती है, उसको भी तुम्हें प्रेतबाधा समझना चाहिये, यह बात मैं सत्य ही कह रहा हूँ। प्राणी जो नीच कर्म से सम्बन्ध रखता है, हीन-घृणित कर्म करता है और अधर्म में नित्य अनुरक्त रहता है, वह प्रेत से उत्पन्न पीड़ा है। (नशा) व्यसनों से द्रव्य का नाश हो जाता है, प्राप्त धन का विनाश होता है। चोर, अग्नि और राजा से जो हानि होती है, यह प्रेतसम्भूत पीड़ा है। श्शरीर में महाभयंकर रोग की उत्पत्ति बारम्बार बालकों की पीड़ा तथा हमेशा पत्नी का रोग से पीड़ित होना- ये सब प्रेतबाधा जनित हैं। वेद, स्मृति-पुराण एवं धर्मशास्त्र के नियमों का पालन करने वाले परिवार में जन्म होने पर भी धर्म के प्रति प्राणी के अन्तःकरण में प्रेम का न होना प्रेतजनित बाधा ही है। जो मनुष्य प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से देवता, पितर, तीर्थ और ब्राह्मण की निन्दा करता है, यह भी प्रेतोत्पन्न पीड़ा है। सहसा अपनी जीविका का नष्ट होना, प्रतिष्ठा तथा वंश का विनाश भी प्रेतबाधा के अतिरिक्त अन्य प्रकार से सम्भव नही है। बारम्बार स्त्रियों का गर्भ विनष्ट हो जाता है, जिममें रजोदर्शन नही होता और बालकों की मत्यु हो जाती है, वहां प्रेतजन्य बाधा ही समझनी चाहिये। जो मनुष्य शुद्ध भाव से अपने पितरों का वार्षिक या पितृपक्ष में श्राद्ध नही करता है, वह भी पितृदोष या प्रेतबाधा है। तीर्थ में जाकर दूसरे के धन, स्त्री में असक्त हुआ प्राणी जब अपने सत्कर्म का परित्याग कर दे तथा धर्मकार्य में स्वार्जित धन का उपयोग न करे तो उसको भी प्रेतजन्य पीड़ा ही समझनी चाहिये। प्रायः भोजन करने के समय ही कोपयुक्त पति-पत्नी के बीच कलह, दूसरों से हमेशा शत्रुता रखने वाली बुद्धि- यह सब प्रेत-सम्भूत पीड़ा है। जहां पुष्प और फल नही दिखायी देते तथा पत्नी का विरह होता रहता है, वहां भी प्रेतोत्पन्न पीड़ा है। जिन लोगों में सदैव मन में उच्चाटन के अत्यधिक चिन्ह (उन्माद विक्षिप्तता) दिखायी देते हैं, अपने क्षेत्र में उसका तेज निष्फल हो जाता है तो उसे प्रेतजनित बाधा ही माननी चाहिये। जो व्यक्ति अपने परिवार का विनाशक है, जो अपने ही पुत्र को शत्रु के समान मार डालता है, जिसके अन्तःकरण में प्रेम और सुख की अनुभूतियों का अभाव रहता है, वह दोष उस प्राणी में प्रेतबाधा के कारण होता है। माता-पिता की अवहेलना, अपनी पत्नी के साथ रहकर भी सुखोपभोग न कर पाना, लोभ, व्यग्रता और महाक्रूर बुद्धि भी प्रेतजन्य बाधा के कारण होती है।

हे तार्क्ष्य! निषिद्ध कर्म, दुष्ट-संसंर्ग तथा श्राद्ध के न होने और अविधिपूर्वक की गयी (मृतक) अंतिम संस्कार क्रिया से मृतक प्रेत होता है। अकालमृत्यु या दाह-संस्कार से वंचित होने पर प्रेतयोनि प्राप्त होती है, जिससे प्राणी को दुःख झेलना पड़ता है। हे पक्षीराज! ऐसा जानकर मनुष्य प्रेत-मुक्ति का सम्यक् आचरण करे। जो व्यक्ति प्रेत योनियों को नही मानता है, वह स्वयं प्रेतयोनि को प्राप्त होता है। जिसके वंश में प्रेत-दोष या पितृ दोष रहता है, उसके लिये इस संसार में सुख नही है। प्रेतबाधा या पितृदोष होने पर मनुष्य की मति, प्रीति, रति, लक्ष्मी और बुद्धि इन पांचों का विनाश होता है। तीसरी या पांचवीं पीढ़ी में प्रेतबाधाग्रस्त कुल का विनाश हो जाता है। ऐसे वंश का प्राणी जन्म-जन्मान्तर दरिद्र, निर्धन और पापकर्म में अनुरक्त रहता है। विकृत मुख तथा नेत्र वाले, महाक्रुद्ध स्वभाव वाले, अपने गोत्र, पुत्र-पुत्री, पिता, भाई, भौजाई अथवा बहू को नहीं मानने वाले लोग भी विधिवश प्रेत-शरीर धारण कर सद्गति से रहित हो ‘बड़ा कष्ट है’ यह चिल्लाते हुए अपने पाप को स्मरण करते हैं।
श्रीगरूड़ ने कहा- हे भगवन्! प्रेत किस प्रकार से मुक्त होते हैं घ् जिनकी मुक्ति होने पर मनुष्यों को प्रेतजन्य पीड़ा पुनः नही होती। हे देव! जिन लक्षणों से युक्त बाधा को अपने प्रेतजन्य कहा है, उनकी मुक्ति कब सम्भव है और क्या किया जाय कि प्राणी को प्रेतत्व की प्राप्ति न हो सके ? प्रेतत्व कितने वर्षों का होता है ? चिरकाल से प्रेतयोनि को भोग रहा प्राणी उससे किस प्रकार मुक्त हो सकता है ? यह सब आप बतलाने की कृपा करें।

श्रीकृष्ण जी ने कहा- हे गरूड़! प्रेत जिस प्रकार प्रेतयोनित से मुक्त होते हैं, उसे मैं बतला रहा हूँ। जब मनुष्य यह जान ले कि प्रेत मुझको कष्ट दे रहा है तो ज्योतिर्विद से इस विषय में निवेदन करे। पितृदोष या प्रेतग्रस्त प्राणी को बड़े ही अद्भुत स्वप्न दिखायी देते हैं। जब तीर्थ-स्नान की बुद्धि होती है, चित्त धर्मपरायण हो जाता है और धार्मिक कृत्यों को करने की मनुष्य की प्रवृत्ति होती है, तब प्रेतबाधा उपस्थित होती है एवं उन पुण्य कार्यों को नष्ट करने के लिये चित्त भंग कर देती है। कल्याणकारी कार्यों में पग-पग पर बहुत से विघ्न होते हैं। प्रेत बार-बार अकल्याणकारी मार्ग में प्रवृत्त होने के लिये प्रेरणा देते हैं। शुभकर्मों में प्रवृत्ति का उच्चटन और क्रूरता यह सब प्रेत के द्वारा किया जाता है। जब व्यक्ति समस्त विघ्नों को विधिवत् दूर करके मुक्ति प्राप्त करने के लिये सम्यक् उपाय करता है तो उसका वह कर्म हितकारी होता है और उसके प्रभाव से शाश्वत प्रेतनिवृत्ति हो जाती है। हे पक्षिन् ! दान देना अत्यन्त श्रेयस्कर है, दान देने से श्प्रेतश् मुक्त हो जाता है। जिसके उद्देश्य से दान दिया जाता है, उसको तथा स्वयं को वह दान तृप्त करता है। हे तार्क्ष्य! यह सत्य है कि जो दान देता है वही उसका उपभोग करता है।

दानदाता दान से अपना कल्याण करता है और ऐसा करने से प्रेत को भी चिरकालिक संतृप्ति प्राप्त होती है। संतृप्त हुए वे प्रेत सदैव अपने बन्धु-बान्धवों का कल्याण चाहते हैं। यदि विजातीय अन्य दुष्ट प्रेत उसके वंश को पीड़ित करते हैं तो संतृप्त हुए अपने परिवार के सगोत्री प्रेत अनुग्रहपूर्वक उन्हें रोक देते हैं। उसके बाद समय आने पर अपने पुत्र से प्राप्त हुए पिण्डादिक दान के फल से वे मुक्त हो जाते हैं।हे पक्षीराज! यथोचित दानादि के फल से संतृप्त प्रेत अपने वंश-परिवार, बन्धु-बान्धवों को धन्य-धान्य से समृद्धि प्रदान करते हैं। जो व्यक्ति स्वप्न में प्रेत-दर्शन, भाषण, चेष्टा और पीड़ा आदि को देखकर भी श्राद्धादि उनकी मुक्ति का उपाय नही करता व प्रेतों के द्वारा दिये गये शाप से ग्रसित होता है। ऐसा व्यक्ति जन्म-जन्मान्तर तक निःसन्तान, पशुहीन, दरिद्र, रोगी, जीविका के साधन से रहित और निम्नकुल में उत्पन्न होता है। ऐसा वे प्रेत कहते हैं और पुनः यमलोक जाकर पापकर्मों का भोग द्वारा नाश हो जाने के अनन्तर अपने समय से प्रेतत्व की मुक्ति हो जाती है। गरूड़ ने कहा- हे देवेश्वर! यदि किसी प्रेत का नाम और गोत्र न ज्ञात हो सके, उसके विषय में विश्वास न हो रहा हो, कुछ ज्योतिषी पीड़ा को पितृदोष या प्रेतजन्य कहते हों, कभी भी मनुष्य को प्रेत स्वप्न में न दिखायी दे, उसकी कोई चेष्टा न होती हो तो उस समय मनुष्य को क्या करना चाहिये ? उस उपाय को मुझे बतायें।

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श्रीभगवान् ने कहा- हे खगराज! पृथ्वी के देवता शास्त्रज्ञ ब्राह्मण जो कुछ भी कहते हैं, उस वचन को हृदय से सत्य समझकर भक्ति-भावपूर्वक पितृभक्तिनिष्ठ हो पुश्चरणपूर्वक नारायणबलि करके जप, होम तथा दान से देह-शोधन करना चाहिये। उससे समस्त विघ्न नष्ट हो जाते हैं। यदि वह प्राणी भूत, प्रेत, पिशाच, पितृदोष अथवा अन्य किसी से पीड़ित होता है तो उसको अपने पितरों के लिये त्रयम्बकेश्वर स्थान में त्रिपिण्डी श्राद्ध तथा नारायणबलि करनी चाहिये। ऐसा कर वह सभी प्रकार की पीड़ाओं से मुक्त हो जाता है। यह मेरा सत्य वचन है। अतः सभी प्रयत्नों से पितृभक्तिपरायण होना चाहिये। नवें या दसवें वर्ष अपने पितरों के निमित्त प्राणी को 10,000 गायत्री-मन्त्रों का जप करके दशांश होम कराना चाहिये। नारायणबलि करके सांड छोड़ना चाहिये या वृषोत्सर्गादि क्रिया, करनी चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य सभी प्रकार के उपद्रवों से रहित हो जाता है, समस्त सुखों का उपभोग करता है तथा उत्तम लोक को प्राप्त करता है और उसे जाति-प्राधान्य प्राप्त होता है। इस संसार में माता-पिता के समान श्रेष्ठ अन्य कोई देवता नही है। अतः सदैव सम्यक् प्रकार से अपने पितरों या माता-पिता की पूजा करनी चाहिये। हितकर बातों का उपदेष्टा होने से पिता प्रत्यक्ष देवता है। संसार में जो अन्य देवता हैं वे शरीरधारी नही है। प्राणियों का शरीर ही स्वर्ग एवं मोक्ष का एक मात्र साधन है। ऐसा शरीर जिन माता-पिता के द्वारा प्राप्त हुआ है उससे बढ़कर पूज्य कौन है घ् हे पक्षिन! ऐसा विचार करके मनुष्य जो-जो दान देता है उसका कल्याण के रूप में उपभोग वह स्वयं करता है, ऐसा वेदविद् विद्वानों का कथन है।

लोकेंद्र चतुर्वेदी ज्योतिर्विद