स्वर कोकिला, स्वर साम्राज्ञी, हर दिल अजीज, सुरों की मलिका, हर किसी को अपनी आवाज से गुनगुनाने को मजबूर करने वाली अजीम शख्सियत लता दीदी कहें, लता ताई या लताजी नहीं तो लता मंगेशकर कुछ भी कह लें, बड़ी-ही खामोशी से खामोश हो गईं। जिसने भी सुना सन्न रह गया, हर किसी को अपनी आवाज से सुकून देने वाली जानी-पहचानी और सबसे अलग आवाज की ऐसी विदाई ने हर किसी को गमगीन कर दिया।
सचमुच ऐसा लगता है कि एक युग का अंत हो गया। चीनी घुली वो मखमली आवाज जो उम्र के आखिरी मुकाम तक जस की तस बनी रही बल्कि जवाँ होती रही, सचमुच किसी वरदान से कम नहीं थी। इससे भी बढ़कर ये कहें कि दुनिया की उन चंद आवाजों में शुमार बल्कि वे इकलौती गायिका हैं, जिनके गीत चौबीसों घण्टे, अनवरत दुनिया भर में कहीं न कहीं अपनी मिठास घोलते रहते हैं। सच में लता मंगेशकर ने जो मुकाम हासिल किया वो सबसे ऊंचा था।
अद्वितीय प्रतिभा की धनी लता जी की आवाज में जबरदस्त कशिश थी, मजाक में ही सही अक्सर इस बात पर भी चर्चाएँ सुनाई देतीं थी कि उनके गले पर रिसर्च होनी चाहिए। 1969 में पद्म भूषण, 1989 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार, 1999 में पद्म विभूषण, 2001 में भारत रत्न, 2008 में भारत की स्वतंत्रता की 60 वीं वर्षगांठ पर “वन टाइम अवार्ड फॉर लाइफटाइम अचीवमेंट” सम्मान सहित न जाने कितने प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित लता दीदी भारत की वो अनमोल रत्न थीं जो तीन पीढ़ियों से सारे देश पर अपनी आवाज से राज कर रहीं थीं।
उनकी सौम्यता और प्रतिभा पर सबको फख्र है। लता जी वो सितारा हैं जो नाशवान शरीर के रूप में भले ही हमसे छिन गयी हों लेकिन अनंत में चमकते तारे के रूप में प्रकृति के साथ चमकती-दमकती रहेंगी। सच है कि एक सूरज, एक चाँद और एक ही लता मंगेशकर। कहने को तो हमेशा यह नारा सुनाई देता है कि जबतक सूरज-चाँद रहेगा, लता दीदी तेरा नाम रहेगा। लेकिन लता जी के लिए यह हकीकत है। उनकी जगह कोई ले पाए यह मुमकिन नहीं और कोई दूसरी लता मंगेशकर दुनिया में आ पाए यह नामुमिकन है।
8 दशकों के अपने संगीत के सफर में लता ताई ने सुरों की वो माला गूंथी और सुरों की जो बंदिगी की है वो बानगी है। अपने सुरों से ना सिर्फ प्लेबैक सिंगिंग को नये आयाम देने वाली बल्कि गायकों की तमाम पीढ़ियों को प्रोत्साहित करने वाली लता जी 28 सितंबर, 1929 को मध्य प्रदेश के इंदौर में एक मराठी परिवार में जन्मीं। जन्म के साथ उन्हें हेमा नाम दिया गया था लेकिन पिता को पसंद नहीं आया और उन्होंने नाम बदलकर लता रख दिया। उनके पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर मराठी रंगमंच से जुड़े थे। केवल 5 वर्ष की आयु में अपने पिता के साथ नाटकों में अभिनय किया और संगीत सीखने लगीं। जाने-माने उस्ताद अमानत अली खां से शास्त्रीय संगीत सीखना शुरू किया लेकिन वो विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए। तब अमानत खां से संगीत शिक्षा ली। पंडित तुलसीदास शर्मा और उस्ताद बड़े गुलाम अली खां जैसी जानी-मानी शख्सियतों से भी संगीत के गुर सीखे।
लता जी का शुरुआती सफर चुनौतियों से भरा हुआ था। बॉलीवुड में 1940 के दशक में प्रवेश के साथ वहाँ नूरजहां, शमशाद बेगम और जोहरा बाई अंबाले वाली जैसी वजनदार आवाज के सामने उनकी महीन आवाज फीकी लगी। लेकिन तब कौन जानता था कि इसी महीन आवाज की मल्लिका एक दिन दुनिया में अपना वो जादू ऐसा बिखेरेगी कि हर कोई उनकी आवाज का दीवाना बन जाएगा।
तब इसी आवाज के चलते उनके कई मौके बेकार गए क्योंकि उस समय बहुत से फिल्म प्रोड्यूसरों और संगीत निर्देशकों को उनकी बहुत ऊंची और पतली आवाज पर भरोसा नहीं था। 1942 में 13 वर्ष की छोटी उम्र में सिर से पिता का साया उठने के बाद परिवार की जिम्मेदारी उन पर आ गई और एक बेहद कठिन इम्तिहान से गुजरना पड़ा। पूरा परिवार पुणे से मुंबई आ गया। जहाँ उन्हें फिल्मों में अभिनय से नापसंदगी के बावजूद परिवार की आर्थिक जिम्मेदारी को उठाने की मजबूरी में अभिनय करना पड़ा। 1942 से 1948 के बीच लता ने लगभग आठ हिन्दी और मराठी फिल्मों में काम किया।
आखिरकार 7 साल के संघर्ष के बाद वह दौर भी आया जब 1949 में फिल्म ‘महल’ के गाने ‘आयेगा आने वाला ..’ के बाद लता मंगेशकर बॉलीवुड में अपनी पहचान बनाने में सफल हुईं। इसके बाद वह राजकपूर की फिल्म ‘बरसात’ के गाने ‘जिया बेकरार है’, ‘हवा मे उड़ता जाए’ जैसे गीत गाने के बाद बॉलीवुड में एक सफल पार्श्व गायिका के रूप मे स्थापित हो गईं।
उन्होंने 36 भाषाओं में 30 हजार से ज्यादा गाने गाए हैं। 1991 में ही गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने माना था कि वे दुनिया भर में सबसे अधिक रिकॉर्ड की गई गायिका हैं। लता मंगेशकर को मिले पुरस्कारों की सूची बहुत बड़ी है। देश-विदेश में संगीत और गायन के क्षेत्र में मिले अनगिनत पुरस्कारों की भरमार है। उन्हें मिले पुरस्कारों को यदि संग्रहित किया जाए तो यह भारत की अनमोल विरासत वाला नया म्यूजियम होगा।
लता ताई को बस एक अफसोस ताउम्र रहा कि रियाज में कभी भी कमी नहीं करने वाली और बहुत छोटी उम्र में जिस शास्त्रीय संगीत को सीखा, उससे वो दूर हो गईं। 1942 से 2015 तक के लंबे करियर में 1942 में आई मराठी फिल्म ‘पहली मंगलागौर’ में गाना गाया। हिंदी फिल्मों में उनकी एंट्री साल 1947 में फिल्म ‘आपकी सेवा’ के जरिए हुई। साल 2015 में लता जी ने आखिरी बार निखिल कामत की फिल्म ‘डुन्नो वाय 2’ में गाना गाया था।
यह सच है समूची दुनिया में इस वक्त भी लता जी के गीत गुनगुनाए और सुने जा रहे हैं। बस नहीं हैं तो वो खुद, जो अनंत में विलीन होकर भी अपनी मंत्रमुग्ध आवाज को सुन आनन्दित हो रही होंगी और ईश्वर भी इस कोहिनूर को अपने श्री चरणों में पाकर चकित होगा। खामोश, शांत लेकिन गरिमामय विदाई और मुंबई के प्रख्यात शिवाजी पार्क में पंचतत्वों में विलीन हो समाधिस्थ लता जी की हमेशा गूंजने वाली आवाज अब हर रोज उनकी याद और श्रध्दांजलि होगी।
ऋतुपर्ण दवे