महापर्व छठः प्रकृति के सम्मान का पर्व

कांच ही बांस के बहंगिया, बहंगी लचकति जाय… बहंगी लचकति जाय..
बात जे पुछेलें बटोहिया बहंगी केकरा के जाय? बहंगी केकरा के जाय?

प्रकृति के विभिन्न तत्वों की महत्ता लोग फिर समझने लगे हैं। हमारी सनातन परंपरा में प्रकृति पूजा का प्रचलन शुरू से है और वर्ष का कोई न कोई दिन देवता पूजन के साथ-साथ प्रकृति पूजन से जुड़ा है। इस पृथ्वी के सजीवों की साक्षात निर्भरता सूर्य पर टिकी हुई है। उनकी आराधना का पर्व पवित्रता के साथ-साथ सादगी का प्रतीक भी है। छठ पूजा हिंदुओं के प्रमुख त्योहारों में से एक है। मुख्य रूप से यह त्योहार बिहार में मनाया जाता है लेकिन धीरे-धीरे यह भारत के सभी हिस्सों में मनाया जाने लगा है। इसके अलावा भारतवंशियों द्वारा विदेशों में भी मनाया जाता है।

सुख-समृद्धि का व्रत

भारत में सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध पर्व है छठ, मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है। यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है। पहली बार चैत्र माह और दूसरी बार कार्तिक माह में चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ व कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है। चार दिवसीय इस त्योहार की शुरूआत चतुर्थी से होती है और सप्तमी को इसका अंतिम दिन होता है। सूर्यदेव से जुड़े इस पर्व में महिलाएं पति की लंबी आयु और संतान सुख के साथ परिवार में सुख-समृद्धि के लिए इस व्रत को रखती हैं। छठ पूजा सूर्य और उनकी पत्नी उषा को समर्पित है। छठ पूजा की परंपरा और उसके महत्‍व के बारे में कई उल्‍लेख मिलते हैं। माना जाता है कि यह व्रत सीता तथा द्रौपदी ने भी रखा था।

छठ के त्‍योहार की शुरुआत महाभारत काल से मानी जाती है। द्रौपदी और पांडव ने अपनी समस्याओं को सुलझाने और अपने खोए राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए छठ त्योहार शुरू किया था। यह भी माना जाता है कि छठ पूजा पहली बार कर्ण द्वारा की गई थी। सूर्यपुत्र कर्ण प्रतिदिन घंटों नदी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य दिया करते थे जिसकी वजह से वह महान योद्धा बने। उस जमाने से चली आ रही छठ में अर्घ्य दान की परंपरा प्रचलित है।

यह भी माना जाता है कि जब पांडव अपना सारा राजपाठ हार गए तब द्रौपदी ने छठ व्रत रखकर पांडवों को उनका सारा राजपाठ वापस दिलवाया था। वहीं एक और कहानी यह है कि, भगवान राम और सीता ने 14 साल के निर्वासन के बाद अयोध्या लौटने के तुरंत बाद छठ पूजा की थी। उसके बाद यह महत्वपूर्ण और पारंपरिक हिंदू त्योहार के रुप में हर घर में मनाया जाने लगा।

36 घंटे का व्रत

इस पर्व की तैयारी दिवाली के बाद ही बड़े उत्साह से कर दी जाती है। छठ पूजा चार दिवसीय उत्सव है। इसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं। इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते। पूजा की शुरुआत पहले दिन सेन्धा नमक, घी से बना हुआ अरवा चावल और कद्दू की सब्जी प्रसाद के रूप में ली जाती है। अगले दिन से उपवास आरम्भ होता है। व्रती दिनभर अन्न-जल त्याग कर शाम करीब सात बजे से गुड़ में खीर बनाकर, पूजा के उपरान्त प्रसाद ग्रहण करते हैं, जिसे खरना कहते हैं। तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को नदी में खड़ा होकर अर्घ्य यानी दूध अर्पण करते हैं। अंतिम दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य चढ़ाते हैं। पूजा में पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है।

कठिन तपस्या का व्रत छठ

शास्त्रों के अनुसार ऐसा भी कहा गया है की इस दिन माता छठी यानि सूर्य की पत्नी की पूजा होती है। इस पूजा के जरिये हम भगवान सूर्य को धन्यवाद देते हैं और उनसे अपने अच्छे स्वास्थ्य और रोग मुक्त रहने की कामना करते हैं। जिन घरों में यह पूजा होती है। वहां भक्तिगीत गाकर ही सभी कार्यों को व्रती किया करते हैं।

छठ व्रत कठिन तपस्या है। भोजन के साथ ही सुखद शैय्या का भी त्याग किया जाता है। पर्व के लिए बनाये गये कमरे में व्रती फर्श पर एक कम्बल या चादर के सहारे ही रात बिताते हैं। इस उत्सव में शामिल होने वाले लोग नये कपड़े पहनते हैं, जिनमें किसी प्रकार की सिलाई नहीं की गयी होती है। महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ व्रत करते हैं। इस पर्व को करने के लिए मान्यता यह भी है कि जबतक अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला इसके लिए तैयार न हो जाए, तबतक इसे करते रहना होता है।

एक कथा के अनुसार प्रथम देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गये थे, तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के देव सूर्य मंदिर में छठी मैया की आराधना की थी। तब प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था। इसके बाद अदिति के पुत्र हुए त्रिदेव रूप आदित्य भगवान, जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलायी। कहते हैं कि उसी समय से देव सेना षष्ठी देवी के नाम पर इस धाम का नाम देव हो गया और छठ का चलन भी शुरू हो गया।

विश्वकर्मा ने किया देव सूर्य मंदिर का निर्माण

बिहार के औरंगाबाद जिले के देव स्थित प्राचीन सूर्य मंदिर अनोखा है। ऐतिहासिक त्रेतायुगीन पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर अपनी विशिष्ट कलात्मक भव्यता के साथ-साथ अपने इतिहास के लिए भी विख्यात है। औरंगाबाद से 18 किलोमिटर दूर देव स्थित सूर्य मंदिर करीब सौ फीट ऊंचा है। काले और भूरे पत्थरों की नायाब शिल्पकारी से बना यह सूर्य मंदिर ओड़िशा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर से मिलता-जुलता है। मंदिर के निर्माणकाल के संबंध में मंदिर के बाहर लगे एक शिलालेख पर ब्राह्मी लिपि में लिखित और संस्कृत में अनूदित एक श्लोक के मुताबिक, इस मंदिर का निर्माण 12 लाख 16 हजार वर्ष त्रेता युग बीत जाने के बाद इला-पुत्र पुरुरवा ऐल ने आरंभ करवाया। छठ पर्व के मौके पर यहां लाखों लोग भगवान भास्कर की अराधना के लिए जुटते हैं, कहा जाता है कि जो भक्त मन से इस मंदिर में भगवान सूर्य की पूजा करते हैं, उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

विदेशों में भी छठ

सृष्टि और पालन शक्ति के कारण सूर्य की उपासना सभ्यता के विकास के साथ विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग रूप में प्रारम्भ हो गयी, लेकिन देवता के रूप में सूर्य की वन्दना का उल्लेख पहली बार ऋगवेद में मिलता है। इसके बाद अन्य सभी वेदों के साथ ही उपनिषद् आदि वैदिक ग्रन्थों में इसकी चर्चा प्रमुखता से हुई है। निरुक्त के रचियता यास्क ने द्युस्थानीय देवताओं में सूर्य को पहले स्थान पर रखा है। उत्तर वैदिक काल के अन्तिम कालखण्ड में सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना होने लगी। इसने कालान्तर में सूर्य की मूर्ति पूजा का रूप ले लिया।

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वैसे तो छठ बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश का मुख्य पर्व माना जाता है। लेकिन इसकी महत्ता इतनी बढ़ी की अब यह नेपाल के कुछ हिस्सों में विस्तृत रूप से मनाया जाता है। इसके अलावा यह मॉरीशस, गुयाना, फिजी, त्रिनिडाड और टोबैगो सूरीनाम और जमैका में भी मनाया जाता है। इतना ही नहीं छठ देश के लगभग सभी हिस्सों सहित दुनिया के जिन देशों में भारतीय मूल के लोग निवास कर रहे हैं, वो निर्धारित तिथि पर छठ पूजा जरूर करते हैं या फिर जिनको संभव हुआ वो अपने गांव में आकर छठ पूजा करने के लिए जरूर आते हैं।

मुरली मनोहर श्रीवास्तव