चिकित्सा शिक्षा में गुणवत्ता की कमी

देश में चिकित्सकों की कमी के बावजूद चिकित्सा शिक्षा में स्नातकोत्तर कक्षाओं में 1456 सीटें खाली रह जाना चिंता का सबब हैं। ये सीटें राष्ट्रीय पात्रता प्रवेश परीक्षा (नीट पीजी) के बाद खाली रह गईं। इसे लेकर शीर्ष न्यायालय नाराजगी जताते हुए चिकित्सा परामर्श समीति (एमसीसी) को कड़ी फटकार लगा चुका है। हिदायत दी कि एक भी सीट खाली नहीं रहनी चाहिए। विशेष परामर्श से सीटें भरी जाएं। मगर अगली सुनवाई में न्यायालय ने केंद्र और एमसीसी के फैसले को सही मानते हुए कहा कि इसे मनमाना निर्णय नहीं कह सकते, क्योंकि पढ़ाई की गुणवत्ता से समझौता नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा करते हैं तो लोक स्वास्थ्य प्रभावित होगा। अतैए एमसीसी का निर्णय जनस्वास्थ्य के हित में है। बावजूद इसके सच यह है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कमी के चलते बड़ी संख्या में सीटें खाली रह गईं। साथ ही कई प्रतिभावान छात्र जटिल विषयों में पीजी करना नहीं चाहते । जब कोई प्रचलित व्यवस्था संकट में आती है तो सवालों का उठना लाजिमी है। मेडिकल चिकित्सा के पीजी पाठ्यक्रमों में खाली सीटें रह जाने में छात्रों की रुचि नहीं होना भी है। इस परिप्रेक्ष्य में 2015-16 में शल्य चिकित्सक हृदय (कॉर्डियक) में 104, हृदयरोग विषेशज्ञ 55, बालरोग विषेशज्ञ 87, प्लास्टिक सर्जरी 58, स्नायु-तंत्र विषेशज्ञ (न्यूरोलाॅजिस्ट)-48 और स्नायुतंत्र शल्यक्रिया विषेशज्ञों की भी 48 सीटें रिक्त रह गईं थीं। इस कमी के दो कारण गिनाए गए थे। एक -इन पाठ्यक्रमों की प्रवेश परीक्षा के लिए योग्य अभ्यर्थी पर्याप्त संख्या में नहीं मिले। दूसरा- पीजी के लिए जो योग्य विद्यार्थी मिले भी, उन्होंने इन पाठ्यक्रमों में पढ़ने से मना कर दिया। अब 1456 सीटें खाली रहने के पीछे योग्य विद्यार्थियों का उपलब्ध नहीं होना बताया गया है। आखिर क्या कारण हैं कि चिकित्सा शिक्षा में सुविधाएं बढ़ जाने के बावजूद गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध क्यों नहीं कराई जा पा रही है ?

ऐलौपैथी चिकित्सा विषेशज्ञों का मानना है कि विद्यार्थी उन पाठ्यक्रमों में अध्ययन करना नहीं चाहते, जिनमें विषेशज्ञता प्राप्त करने में लंबा समय लगता है। इसके उलट वे ऐसे पाठ्यक्रमों में दक्षता हासिल करना चाहते हैं, जहां जल्दी ही विषेशज्ञता की उपाधि प्राप्त कर धन कमाने के अवसर मिल जाते हैं। गुर्दा, नाक, कान, दांत, गला रोग एवं विभिन्न तकनीकी जांच विषेशज्ञ 35 साल की उम्र पर पहुंचने के बाद शल्य क्रिया शुरू कर देते हैं, जबकि हृदय और तांत्रिका-तंत्र विषेशयज्ञों को यह अवसर 40-45 साल की उम्र बीत जाने के बाद मिलता है। साफ है, दिल और दिमाग का मामला बेहद नाजुक है, इसलिए इनमें लंबा अनुभव भी जरूरी है। लेकिन यह समस्या अनवरत बनी रही तो भविष्य में इन रोगों के उपचार से जुड़े चिकित्सकों की कमी तय है। इस व्यवस्था में कमी कहां है, इसे ढूंढना और फिर उसका निराकरण करना तो सरकार और एलोपैथी शिक्षा से जुड़े लोगों का काम है। सवाल पूछा जा सकता है कि इसके कारणों के नेपथ्य में भारतीय चिकित्सा परिषद को खारिज कर ‘राष्ट्रीय चिकित्सा परिषद‘ बनाना और चिकित्सा शिक्षा का लगातार महंगा होते जाना तो नहीं ?

साल 2016 में एमएमसी अस्तित्व में लाने का निर्णय केंद्र सरकार ने लिया था। आरंभ में इसका मकसद चिकित्सा शिक्षा के गिरते स्तर को सुधारना, इस पेशे को भ्रष्टाचार मुक्त बनाना और निजी चिकित्सा महाविद्यालयों के अनैतिक गठजोड़ को तोड़ना था। लेकिन जब एनएमसी कानून में आया तो इसमें प्रमुख लोच रहा कि आयुर्वेद, होम्योपैथी और यूनानी चिकित्सक भी सरकारी स्तर पर (ब्रिज कोर्स) करके वैधानिक रूप से एलोपैथी चिकित्सा करने के हक पा लेते हैं। यह सिलसिला अनेक स्वयंसेवी संगठनों के माध्यम से देशभर में चल भी पड़ा है। इस पाठ्यक्रम का 25,000 शुल्क है। हालांकि अभी भी इनमें से ज्यादातर चिकित्सक बेखटके ऐलोपैथी की दवाएं लिखते हैं, किंतु यह व्यवस्था अभी गैरकानूनी है और जिले के सरकारी स्वास्थ्य विभाग के कदाचरण पर चलती है। संभव है, इस विरोधाभास को खत्म करने और गैरकानूनी इलाज को कानूनी बना देने के नजरिए से ही इस कानून में सेतु पाठ्यक्रम की सुविधा देकर इन्हें एलोपैथी चिकित्सा की वैधता प्रदान करना रहा हो ? मगर मासूम और अहम सवाल यह है कि क्या किसी साधारण ऑटो-टैक्सी लाइसेंसधारी चालक को कुछ समय प्रशिक्षण देकर हवाई जहाज चलाने की अनुमति दी जा सकती है ?दरअसल उपचार की हरेक पद्धति वैज्ञानिक है। सैकड़ों साल के प्रयोग व प्रशिक्षण से वह परिपूर्ण हुई है। सबकी पढ़ाई भिन्न हैं। रोग के लक्षणों को जानने के तरीके भिन्न हैं और दवाएं भी भिन्न हैं। ऐसे में चार-छह माह की एकदम से भिन्न पढ़ाई करके कोई भी वैकल्पिक चिकित्सक एलौपैथी का मास्टर नहीं हो सकता। गोया जब दूसरी चिकित्सा प्रणाली को एलोपैथी उपचार करने की सुविधा मिल जाएगी तो फिर पीजी की कठिन पढ़ाई करने की जरूरत ही क्यों रह जाएगी।

एमबीबीएस और इससे जुड़े विषयों में पीजी में प्रवेश के लिए बहुत कठिन परीक्षा है। एमबीबीबीएस में कुल 67,218 सीटें हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन 1000 की आबादी पर एक डाॅक्टर की मौजदूगी अनिवार्य मानता है। हमारे यहां यह अनुपात 0.62.1000 है। 2015 में राज्यसभा में तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने बताया था कि 14 लाख एलोपैथी चिकित्सकों की कमी है। किंतु अब यह कमी 20 लाख के पार चली गई है। इसी तरह 40 लाख नर्सों की कमी है। यह खाई कैसे पटेगी, यह गंभीर सवाल है।

एमबीबीबीएस शिक्षा के साथ कई तरह से खिलवाड़ हो रहा है। कायदे से उन्हीं छात्रों को मेडिकल काॅलेज में प्रवेश मिलना चाहिए, जो सीटों की संख्या के अनुसार नीट परीक्षा से चयनित हुए हैं। आलम है कि जो छात्र दो लाख से भी ऊपर की रैंक में हैं, उसे भी धन के बूते प्रवेश मिल जाता है। यह स्थिति इसीलिए बनी हुई है। जो मेधावी छात्र निजी काॅलेज की फीस अदा करने में सक्षम नहीं हैं, वह मजबूरीवश अपनी सीट छोड़ देते हैं। बाद में इसी सीट को निचली श्रेणी में स्थान प्राप्त छात्र खरीदकर प्रवेश पा जाते हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि इस सीट की कीमत कथित तौर पर कई करोड़ रुपये होती है। गोया जो छात्र एमबीबीबीएस में प्रवेश की पात्रता नहीं रखते, वह भी इस जिम्मेदार पेशे के पात्र बन जाते हैं। ऐसे में इनसे दायित्व के प्रति कोई नैतिक प्रतिबद्धता की उम्मीद बेमानी है। ऐसे बच्चे कैसे अच्छे पेशेवर बनेंगे, यह सवाल लंबे समय उठ रहा है।

प्रमोद भार्गव