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किसानों को जाति और खाप में बांटना ठीक नहीं

New Delhi, Feb 04 (ANI): Farmers shout slogans during the ongoing farmer protest against the new farm laws at Singhu Border, in New Delhi on Thursday. (ANI Photo)

आंदोलन किसानों का है या राजनीतिक दलों, खाप पंचायतों या एक जाति विशेष का। यह आंदोलन पंजाब, हरियाणा या पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ गांवों के लोगों का है। दस-बीस हजार या कोई लाख-सवा लाख मानें तो वही सही, किसानों का है जबकि किसानों की संख्या करोड़ों में है। करोड़ों किसानों को केंद्र और राज्य सरकारों की जनहितकारी योजनाओं का लाभ भी मिल रहा है। कुछ मुट्ठी भर किसान देशभर के किसानों का नजरिया कैसे प्रकट कर सकते हैं? जिस तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के गांवों में जाट सभा हो रही है, खाप पंचायतें हो रही हैं, उसे किस रूप में देखा जाना चाहिए? किसानों को जाति विषेष में बांटना कितना उचित है? जो राजनीतिक दल इन किसानों को देशभर के किसानों का आंदोलन कह रहे हैं और इसके लिए संसद के दोनों सदनों में हंगामा कर रहे हैं, उन्हें यह बताना चाहिए कि क्या देश का किसान इतना समृद्ध हो गया है कि आंदोलन के दिन नई ट्रैक्टर खरीदकर खड़ी कर दे। प्रति गांव अगर ट्रैक्टरों की गणना करें तो एक गांव में बमुश्किल पांच ट्रैक्टर मिलेंगे लेकिन जिस तरह दिल्ली की सड़कों पर गणतंत्र दिवस के दिन ट्रैक्टर परेड हो रही थी, उससे तो लगता ही नहीं कि देश में कोई किसान गरीब है।

जमीनी सच्चाई यह है कि आज भी 95 प्रतिशत किसानों ने किसान मंडी का गेट नहीं देखा है। उनका अनाज या बिचैलिये खरीदते हैं या मिल मालिकों के संचालक और उनके एजेंट। मंडियों के भ्रष्टाचार किसी से छिपे नहीं हैं। कांग्रेस ने खुद अपने चुनावी घोषणापत्र में मंडियों को हटाने और अनुबंध की खेती को प्रोत्साहित करने की बात कही थी। आज उसे केंद्र सरकार द्वारा किए गए कृषि सुधार कानून रास नहीं आ रहे हैं तो इसके पीछे क्या वजह है, उसे इस देश को बताना चाहिए। क्या कुछ मुट्ठी भरी लोगों को देश की परेशानी बढ़ाने, उनका रास्ता रोकने का अधिकार दे दिया जाना चाहिए। क्या सरकार को ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई भी नहीं करनी चाहिए। केंद्र सरकार ने पूरी सदाशयता का परिचय दिया है। उसने किसानों को 11 बार वार्ता की मेज पर आमंत्रित किया। ऐसे में कोई यह कैसे कह सकता है कि सरकार किसानों से बात नहीं कर रही।

केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग संसद के दोनों सदनों में हो रही है। दो दिनों से पूरा विपक्ष इस बात पर आमादा है कि सरकार इन कानूनों को वापस ले लेकिन इन कानूनों को क्यों वापस लिया जाना चाहिए और क्यों इसे बनाए रखना चाहिए, इसपर चर्चा जरूरी है लेकिन जिस तरह विपक्ष हंगामा कर रहा है और सदन की कार्यवाही बाधित हो रही है, उससे लगता नहीं कि कोई समाधान निकलने वाला है।

कांग्रेस को लगता है कि सरकार किसानों से लड़ाई कर रही है। गुलाम नबी आजाद की अपील से तो यही लगता है। वे मांग कर रहे हैं कि सरकार कृषि कानूनों को वापस ले ले। उनको लगता है कि सरकार ने अगर इन तीनों कानूनों को प्रवर समिति के सामने भेज दिया होता तो इतना कोलाहल नहीं होता। लाल किले की घटना की जांच की तो वे मांग कर रहे हैं लेकिन किसी निर्दोष को न फंसाए जाने की भी दलील दे रहे हैं। सवाल उठता है कि क्या ट्रैक्टर रैली निकालने वाले किसान नेताओं को दिल्ली में गणतंत्र दिवस के दिन हुई हिंसा का दोषी नहीं माना चाहिए। ऐसे तो पुलिस जिस किसी को पकड़ेगी, कुछ लोग उसे निर्दोष बताने लगेंगे। भीड़ जब हिंसा का पात्र बनती है तो उसमें दोषी और निर्दोष तलाशना भूसे में सुई तलाशने जैसा होता है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया है। उसने साफ तौर पर कहा है कि सरकार को ज्ञापन दें क्योंकि सरकार ही इस मामले को देख रही है। बेहतर होगा कि विपक्षी दल भी सरकार को काम करने का मौका दें।

सवाल यह भी उठता है कि जब कांग्रेस सत्ता में होती है तो उसे किसानों की सुध क्यों नहीं आती। विपक्ष में रहते हुए ही उसे किसानों की बदहाली क्यों नजर आने लगती है? जिस तरह विदेश के कुछ लोग इस आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं, क्या कांग्रेस या किसी अन्य विपक्षी दल को नहीं लगता कि यह भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप है। अगर मानते हैं तो किसी भी विपक्षी दल ने कनाडा या दुनिया के किसी भी देश के नेताओं या कलाकारों का विरोध क्यों नहीं किया?

जिस राज्यसभा में किसानों की समस्याएं गिनाई जा रही हैं, उसी सदन में यह भी कहा जा रहा है कि किसानों के उत्पाद की 77 प्रतिशत राशि बिचौलियों को मिलती है और सरकार ने जो कृषि सुधार कानून बनाया है उससे बिचौलिये समाप्त हो जायेंगे। सरकार कृषि उत्पादों के मूल्य संवर्धन पर जोर दे रही है जिससे किसानों की आय में भारी वृद्धि होगी। किसानों को विश्वास में लेकर कृषि सुधार कानून बनाया गया है। यह भी दलील दी गई कि कि किसानों को न्याय नहीं मिलता, इस कारण वे खेती छोड़ रहे हैं। सत्तारूढ़ दल के सांसद ने यह भी कहा है कि राजनीतिक दल हताशा में कृषि मंडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था को लेकर भ्रम फैला रहे हैं।

कांग्रेस पर कृषि कानूनों की गलत तुलना का आरोप लगाते हुए जदयू के एक सांसद ने कहा है कि इन कानूनों में लगान वसूली की नहीं बल्कि किसानों की आय बढ़ाने की बात है। अनुबंध की खेती को किसानों के लिए लाभकारी बताते हुए उन्होंने कहा है कि देश में अभी भी अनौपचारिक अनुबंध पर खेती हो रही है। बंटाई पर खेती वास्तव में अनुबंध पर खेती ही है। आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में बनाया गया था जो देश में खाद्य पदार्थों का संकट था लेकिन अब हालात बदल गये हैं। देश में खाद्य पदार्थों का अतिरेक उत्पादन है। इनके भंडारण के लिए जगह चाहिए। किसानों के उपज का भंडारण करने में इन कानूनों से मदद मिलेगी, इस बात को नकारा नहीं जा सकता। उन्होंने किसान नेताओं पर हठधर्मिता दिखाने का आरोप लगाते हुए कहा कि सरकार कानूनों पर विचार-विमर्श के लिए तैयार है। समस्याओं के समाधान के लिए संपर्क एवं संवाद जरूरी है। जिद पर अड़े रहने भर से बात नहीं बनती।

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जिस तरह की जिद किसान नेता कर रहे हैं, उससे कम जिद कांग्रेस भी नहीं कर रही है। उसे समझना होगा कि किसानों को वोट, जाति का विषय बनाकर देश के लिए सिरदर्द पैदा कर रही है। देश का 95 प्रतिशत किसान अपने घरों में है। खेतों में काम कर रहा है। उसके पास दिल्ली जाने के लिए वक्त नहीं है। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को बताना चाहिए कि वे सभी किसानों के साथ हैं या कुछ प्रतिशत किसानों और बिचौलियों के साथ। जनता बखूबी देख-समझ रही है, उसकी सोच-समझ को कमतर आंकना किसी भी दल के लिए बुद्धिमानी नहीं होगी।

सियाराम पांडेय

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