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राष्ट्रपति उम्मीदवार के चयन में भी नवोन्मेष

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राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार की तलाश पूरी हो गई है। सत्ता पक्ष के स्तर पर भी और विपक्ष के स्तर पर भी। तीतर के बारे में मान्यता है कि वह तीन प्रयास में अमूमन पकड़ में आ जाता है लेकिन राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार चुनने में विपक्ष को पसीने आ गए। शरद पवार,फारूख अब्दुल्ला और महात्मा गांधी के प्रपौत्र गोपालकृष्ण गांधी के इनकार के बाद विपक्ष को भी एकबारगी यह लगने लगा था कि अब कौन? वह राष्ट्रपति पद के लिए किसी अपेक्षित चेहरे का चयन कर भी पाएगा या नहीं। लेकिन, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और धुर मोदी विरोधी ममता बनर्जी के धैर्य और सूझ-बूझ की दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने अपने सियासी तरकश से यशवंत सिन्हा के रूप में एक ऐसा तीर निकाला जिससे विपक्ष की आकांक्षाओं को पंख लग गए। वैसे भी ममता बनर्जी चाहती तो यही थीं कि राष्ट्रपति तृणमूल कांग्रेस का ही हो लेकिन अकेला चना भाड़ फोड़ता नहीं और विपक्षी दलों में विरोध न हो, इसलिए अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं के इनकार का इंतजार करती रहीं। सही समय देखकर उन्होंने तृणमूल के कोटे से उम्मीदवार प्रस्तावित कर दिया। हाल ही में उन्होंने जिस तरह खुद को पश्चिम बंगाल के राज्य विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति घोषित किया उससे यह तो साफ हो गया था कि वे पश्चिम बंगाल में केंद्र के समानांतर सरकार चलाना चाहती हैं। राष्ट्रपति पद पर अगर उनके दल का कोई बैठ जाए तो इससे अच्छी बात उनके लिए भला और क्या हो सकती है?

भाजपा के सहयोग की बैसाखी पर बिहार में सत्ता रथ पर सवार नीतीश कुमार तो संभवतः बिहार के लाल को समर्थन करने का सपना ही देखने लगे थे लेकिन नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने झारखंड की पूर्व राज्यपाल और आदिवासी नेत्री द्रौपदी मुर्मू को राजग की ओर से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित कर विपक्ष के सारे कसबल ढीले कर दिए। राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतने के लिए भाजपा और उसके सहयोगियों दलों के पास थोड़े ही मतों की कमी थी। द्रौपदी मुर्मू के नवीन पटनायक से अपने लिए समर्थन मांगने और पटनायक के ट्वीट जिसमे उड़ीसा के गौरव जैसी बात कही गई है, उससे इतना तो साफ हो गया है कि राष्ट्रपति बनने की राह द्रौपदी के लिए अब बहुत कठिन नहीं रह गई है। नीतीश कुमार के पास बाएं-दाएं होने की थोड़ी गुंजाइश भी थी लेकिन अब वे यशवंत सिन्हा का समर्थन कर बिहार में दलितों,आदिवासियों और खासकर महिलाओं का विरोध मोल ले पाने की स्थिति में नहीं हैं। कमोबेश यही स्थिति झारखंड के मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हेमंत सोरेन की भी है। एक तरफ आदिवासी गौरव की बात है तो दूसरी ओर गठबंधन धर्म निभाने की दुविधा। झामुमो और उसके नेता किधर जाएंगे, यह देखने वाली बात होगी।

मुखर मोदी विरोध की बिना पर यशवंत सिन्हा ने विपक्ष की उम्मीदवारी को तो हां कह दिया लेकिन इसकी फलश्रुति का आभास तो कदाचित उन्हें भी है। उन्होंने कहा है कि देश को रबर स्टाम्प राष्ट्रपति की जरूरत नहीं है। वैसे भी यशवंत सिन्हा की छवि यू-टर्न नेता वाली ही रही है। जो व्यक्ति खुद को वित्तमंत्री बनाने वाली भाजपा का नहीं हुआ और तृणमूल कांग्रेस से हाथ मिला बैठा,उस पर यह देश विश्वास करे भी तो किस तरह? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में कहा है कि उनकी सरकार हर क्षेत्र में नवोन्मेष कर रही है। लीक से अलग हटकर काम कर रही है और यह केंद्र सरकार के निर्णयों में दिखा भी है। राष्टपति के उम्मीदवार चयन में भी यह एक तरह का नवोन्मेष ही है। राष्ट्रपति पद पर सवर्ण, पिछड़ी जाति, दलित, मुस्लिम और महिला का चयन हो चुका है। यह पहला मौका होगा जब कोई आदिवासी महिला देश की प्रथम नागरिक बनने की दौड़ में शामिल हुई है। राजग के इस निर्णय में सबको साथ लेकर चलने की भावना ही प्रतिध्वनित हुई है। द्रौपदी मुर्मू पढ़ी-लिखी महिला हैं। व्यापक राजनीतिक और प्रशासनिक अनुभव रखती हैं। सर्वपल्ली राधाकृष्णन की तरह वे भी शिक्षक रही हैं। पार्षद से लेकर मंत्री और फिर राज्यपाल बनने तक का उनका शानदार और बेदाग राजनीतिक सफर है। रही बात उनके भाजपा से जुड़ाव की तो यह विपक्ष के लिए चिंता का सबब हो सकता है लेकिन आजाद भारत में डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम को अपवाद मानें तो एक भी राष्ट्रपति ऐसा नहीं चुना गया जिसका किसी राजनीतिक दल से लगाव-जुड़ाव न रहा हो। होना तो यह चाहिए था कि राष्ट्रपति शिक्षा, स्वास्थ्य, विज्ञान, साहित्य और समाजसेवा आदि क्षेत्र से चुना जाता। राजनीति से उसका सरोकार न होता। ऐसे में राष्ट्रपति के निर्णयों पर सवाल न उठते। उन निर्णयों पर अदालतों को हस्तक्षेप न करने पड़ते। कम से कम देश अपने प्रथम नागरिक का चयन तो सर्वसम्मति से कर पाता और इस देश के नीति नियंताओं की ऐसी सोच रही भी होगी लेकिन दलगत राजनीति ने जिस तरह 'तेरा राष्ट्रपति और मेरा राष्ट्रपति' की भावना को सबल प्रदान किया है, उसे बहुत उचित भी तो नहीं कहा जा सकता । जिस तरह देश में केंद्र और राज्य में डबल इंजन की सरकार का ट्रेंड चल रहा है और इसका लाभ विकास रथ की गतिशीलता के रूप में दिख रहा है, उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। राष्ट्रपति भी अगर सत्तारूढ़ दल का हो तो उसे फैसले लेने में आसानी होती है। वैसे भी विपक्षी दल जिस तरह अपनी सर्वोच्चता साबित करने में जुटे हैं और साझ की सूई को सेंगरे पर धो रहे हैं, उससे तो इस देश का भला होने से रहा।

भाजपा ने राष्ट्रपति उम्मीदवार के चयन में जिस तरह का नवोन्मेष किया है, उसकी सराहना की जानी चाहिए।देश जब आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। 75वीं वर्षगांठ मना रहा है, तब आदिवासी समाज को इससे बड़ा तोहफा और कुछ हो भी नहीं सकता। नवीन पटनायक की मजबूरी है कि वह ओडिशा के गौरव के साथ आदिवासियों के मान-सम्मान का विचार करें और द्रौपदी मुर्मू का सहयोग करें। वैसे भी बतौर मंत्री वे कभी उनके कामकाज में बराबर की सहयोगी रही हैं। मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा ,बिहार के आदिवासी इलाकों के विधायकों और सांसदों के लिए द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी धर्मसंकट का विषय बन गई है। मोदी और शाह के इस एक निर्णय नें विपक्ष की रणनीति पर पानी फेर दिया है। इससे उसके अपने खेमे में हलचल है। एकजुटता पर संकट पैदा हो गया है। वहीं मोदी विरोध का उसका गुब्बारा चुनाव पूर्व ही फूट नजर आ रहा है।

चुनाव नतीजे तो बाद में आएंगे लेकिन देश मे एक बार फिर यह संदेश तो गया ही है कि देश को जोड़कर चलने के मोदी विजन की विपक्ष के पास अभी कोई काट नहीं है। विरोध के लिए विरोध करना और बात है लेकिन देश को प्रेरक संदेश देना, उसे आगे ले जाना, हर आम और खास की चिंता करना उससे भी अधिक श्रेयस्कर है। यह चुनाव देश के विकास में मील का पत्थर साबित होगा, इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है।

सियाराम पांडेय