एमएसपी बढ़ाने से किसानों की नाराजगी दूर नहीं होगी

केंद्र सरकार ने किसानों के हित में कुछ अनाज पर एक बार फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ा दिया है। सबसे ज्यादा 400 रुपये प्रति क्विंटल मसूर और सरसों पर बढ़ाई गई है। गेहूं पर 40, सूरजमुखी पर 114 और चने पर 130 रुपये बढ़ाई गई है। सरकार ने यह फैसला ऐसे समय लिया है, जब किसानों ने करनाल में बड़ा अंदोलन खड़ा करके तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग बुलंद कर दी है। सरकार ने खरीफ और रबी दोनों मौसमों की 23 फसलों पर एमएसपी तय की है। हालांकि हरियाणा और पंजाब के किसानों को ये बढ़ी दरें रास नहीं आ रही हैं। लिहाजा इन दोनों राज्यों में आंदोलन और तेज होता जा रहा है। हालांकि नरेन्द्र मोदी सरकार ने अन्य राज्यों में एमएसपी के औजार से आंदोलन के विस्तार पर अंकुश जरूर लगा दिया है।

पिछले डेढ साल से चल रहे कोरोना संकट ने तय कर दिया है कि आर्थिक उदारीकरण अर्थात पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की पोल खुल गई है। देश आर्थिक एवं भोजन के संकट से मुक्त है तो उसमें केवल खेती-किसानी का सबसे बड़ा योगदान है। भारत सरकार ने इस स्थिति को समझ लिया है कि बड़े उद्योगों से जुड़े व्यवसाय और व्यापार जबरदस्त मंदी के दौर से गुजर रहे हैं। वहीं किसानों ने 2019-20 में रिकॉर्ड 29.19 करोड़ टन अनाज पैदा करके देश की ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्था को तो तरल बनाए रखा है, साथ ही पूरी आबादी का पेट भरने का इंतजाम भी किया है। 2019-2020 में अनाज का उत्पादन आबादी की जरूरत से सात करोड़ टन ज्यादा हुआ था। 2020-2021 में भी 350 मिलियन टन आनाज पैदा करके किसानों ने देश की अर्थव्यवस्था में ठोस योगदान दिया है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था और किसानों को इसलिए भी बढ़ावा देने की जरूरत है, क्योंकि देश से किए जाने वाले कुल निर्यात में 70 प्रतिशत भागीदारी केवल कृषि उत्पादों की है। यानि सबसे ज्यादा विदेशी मुद्रा कृषि उपज निर्यात करके मिलती है। सकल घरेलू उत्पाद दर में भी कृषि का 45 प्रतिशत योगदान है।

भारतीय अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में अमर्त्य सेन और अभिजीत बनर्जी सहित थॉमस पिकेटी दावा करते रहे हैं कि कोरोना से ठप हुए ग्रामीण भारत पर जबरदस्त अर्थ-संकट गहराएगा। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2017-18 के निष्कर्ष ने भी कहा था कि 2012 से 2018 के बीच एक ग्रामीण का खर्च 1430 रुपये से घटकर 1304 रुपये हो गया है। जबकि इसी समय में एक शहरी का खर्च 2630 रुपये से बढ़कर 3155 रुपये हुआ है। अर्थशास्त्र के सामान्य सिद्धांत में यही परिभाषित है कि किसी भी प्राकृतिक आपदा में गरीब आदमी को ही सबसे ज्यादा संकट झेलना होता है। इस कोरोना संकट में पहली बार देखने में आया है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के पैरोकार रहे बड़े और मध्यम उद्योगों में काम करने वाले कर्मचारी भी न केवल आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं, बल्कि उनके समक्ष रोजगार का संकट भी पैदा हुआ है।

लेकिन बीते दो कोरोना कालों में खेती-किसानी से जुड़ी उपलब्धियों का मूल्यांकन करें तो पता चलता है कि देश को कोरोना संकट से केवल किसान और पशु-पालकों ने ही उबारे रखने का काम किया है। फसल, दूध और मछली पालकों का ही करिश्मा है कि पूरे देश में कहीं भी खाद्यान्न संकट पैदा नहीं हुआ। यही नहीं, जो प्रवासी मजदूर ग्रामों की ओर लौटे, उनके लिए मुफ्त भोजन की व्यवस्था का काम भी गांव-गांव किसान एवं ग्रामीणों ने ही किया। वे ऐसा इसलिए कर पाए, क्योंकि उनके घरों में अन्न के भंडार भरपूर थे। इस दौरान यदि सरकारी महकमों चिकित्सा, पुलिस, बैंक और राजस्व को छोड़ दिया जाए तो 70 फीसदी सरकारी कर्मचारी न केवल घरों में बंद रहे, बल्कि मजदूरों के प्रति उनका सेवाभाव भी देखने में नहीं आया। यदि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री राहत कोषों का आकलन करें तो पाएंगे कि इनका आर्थिक योगदान ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर रहा है। सरकारी कर्मचारियों की इस बेरुखी से भी जरूरी हो जाता है कि अब अनुत्पादक लोगों की बजाय, उत्पादक समूहों को प्रोत्साहित किया जाए?

अन्नदाता की आमदनी सुरक्षित करने की जरूरत है। क्योंकि समय पर किसान द्वारा उपजाई फसलों का उचित मूल्य नहीं मिल पाने के कारण अन्नदाता के सामने कई तरह के संकट मुंह बाए खड़े हो जाते हैं। ऐसे में वह न तो बैंकों से लिया कर्ज समय पर चुका पाते हैं और न ही अगली फसल के लिए वाजिब तैयारी कर पाते हैं। बच्चों की पढ़ाई और शादी भी प्रभावित होती हैं। यदि अन्नदाता के परिवार में कोई सदस्य गंभीर बीमारी से पीड़ित है तो उसका इलाज कराना भी मुश्किल होता है। इन वजहों से उबर नहीं पाने के कारण किसान आत्मघाती कदम उठाने तक को मजबूर हो जाते हैं। यही वजह है कि पिछले तीन दशक से प्रत्येक 37 मिनट में एक किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो रहा है। इसी कालखंड में प्रतिदिन करीब 2052 किसान खेती छोड़कर शहरों में मजदूरी करने चले जाते हैं। कोरोना ने अब हालात को पलट दिया है। इसलिए खेती-किसानी से जुड़े लोगों की गांव में रहते हुए ही आजीविका कैसे चले, इसके पुख्ता इंतजाम करने की जरूरत है।

नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में न्यूनतम समर्थन मूल्य में भारी वृद्धि की थी। इसी क्रम में ‘प्रधानमंत्री अन्नदाता आय सरंक्षण नीति’ लाई गई थी। तब इस योजना को अमल में लाने के लिए अंतरिम बजट में 75,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था। इसके तहत दो हेक्टेयर या पांच एकड़ से कम भूमि वाले किसानों को हर साल तीन किश्तों में कुल 6000 रुपये देना शुरू किए गए थे। इसके दायरे में 14.5 करोड़ किसानों को लाभ मिल रहा है। जाहिर है, किसान की आमदनी दोगुनी करने का यह बेहतर उपाय है। यदि फसल बीमा का समय पर भुगतान, आसान कृषि ऋण और बिजली की उपलब्धता तय कर दी जाती है तो भविष्य में किसान की आमदनी दूनी होने में कोई संदेह नहीं रह जाएगा। ऐसा होता है तो किसान और किसानी से जुड़े मजदूरों का पलायन रुकेगा और खेती 70 फीसदी ग्रामीण आबादी के रोजगार का जरिया बनी रहेगी। खेती घाटे का सौदा न रहे, इस दृष्टि से कृषि उपकरण, खाद, बीज और कीटनाशकों के मूल्य पर नियंत्रण भी जरूरी है।

बीते कुछ समय से पूरे देश में ग्रामों से मांग की कमी दर्ज की गई है। निसंदेह गांव और कृषि क्षेत्र से जुड़ी जिन योजनाओं की श्रृंखला को जमीन पर उतारने के लिए 14.3 लाख करोड़ रुपये का बजट प्रावधान किया गया है, उसका उपयोग अब सार्थक रूप में होता है तो किसान की आय सही मायनों में 2022 तक दोगुनी हो पाएगी। इस हेतु अभी फसलों का उत्पादन बढ़ाने, कृषि की लागत कम करने, खाद्य प्रसंस्करण और कृषि आधारित वस्तुओं का निर्यात बढ़ाने की भी जरूरत है। दरअसल, बीते कुछ साल में कृषि निर्यात में सालाना करीब 10 अरब डॉलर की गिरावट दर्ज की गई है। वहीं कृषि आयात 10 अरब डॉलर से अधिक बढ़ गया है। इस दिशा में यदि नीतिगत उपाय करके संतुलन बिठा लिया जाता है, तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था देश की धुरी बन सकती है।

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केंद्र सरकार फिलहाल एमएसपी तय करने के तरीके में ‘ए-2’ फॉमूर्ला अपनाती है। यानी फसल उपजाने की लागत में केवल बीज, खाद, सिंचाई और परिवार के श्रम का मूल्य जोड़ा जाता है। इसके अनुसार जो लागत बैठती है, उसमें 50 फीसदी धनराशि जोड़कर समर्थन मूल्य तय कर दिया जाता है। जबकि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश है कि इस उत्पादन लागत में कृषि भूमि का किराया भी जोड़ा जाए। इसके बाद सरकार द्वारा दी जाने वाली 50 प्रतिशत धनराशि जोड़कर समर्थन मूल्य सुनिश्चित किया जाना चाहिए। फसल का अंतरराष्ट्रीय भाव तय करने का मानक भी यही है। यदि भविष्य में ये मानक तय कर दिए जाते हैं तो किसान की खुशहाली बढ़ने का रास्ता खुल जाएगा। यह उपाय कृषि कानून विरोधी आन्दोलनों को समाप्त करने की दिशा में भी एक सार्थक पहल हो सकती है।

प्रमोद भार्गव