जातीय जनगणना का आग्रह कितना उचित

जातिगत जनगणना को लेकर बिहार में जिस तरह की सर्वदलीय सहमति बनी है, वैसी सहमति इससे पहले एकाध अवसरों पर ही बनी। एक बार सांसदों का वेतन भत्ता बढ़ाने के सवाल पर भी संसद में सर्वदलीय सहमति बनी थी। हालिया मानसून सत्र में जब केंद्र सरकार ने अति पिछड़ा वर्ग को चिह्नित करने का अधिकार राज्य सरकारों को देने संबंधी विधेयक लोकसभा और राज्यसभा में पेश किया तो भी समूचा विपक्ष इस मुद्दे पर सरकार के साथ खड़ा हो गया था। सारे मतभेद भुलाकर उसने इस विधेयक का समर्थन किया लेकिन साथ ही सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित आरक्षण सीमा को 50 प्रतिशत से अधिक करने की मांग की।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अगुवाई में जिस तरह 11 राजनीतिक दलों का प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिला, उनसे जातिगत जनगणना का आग्रह किया और इसके समर्थन में इस बात की दलील दी कि जब जानवरों की गणना कराई जा सकती है तो जातिगत जनगणना क्यों नहीं कराई जा सकती। इन नेताओं का तर्क है कि जब हमें पता होगा कि देश में कितनी जातियां हैं, उसकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति क्या है तो इससे उनके विकास की योजनाएं बनाने में आसानी होगी। प्रथम दृष्टया तो उनका यह तर्क उचित लगता है लेकिन जातिगत जनगणना के अपने नफा-नुकसान भी हैं। हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। जातिगत जनगणना की प्रतिक्रिया नहीं होगी, असर नहीं होगा, यह कैसे कहा जा सकता है? जो लोग जातीय वैमनस्य और टकराव की आशंका को नकार रहे हैं, उन्हें 90 के दशक में मंडल आयोग की संस्तुति और उसके बाद देश में हुए उपद्रवों पर भी गौर करना चाहिए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जातिगत जनगणना को हरी झंडी देने से पहले देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के उस कथन पर भी विचार करना चाहिए कि जाति आधारित जनगणना देश के हित में नहीं है, इससे सामाजिक वैमनस्य बढ़ेगा। सरदार वल्लभ भाई पटेल उन लोगों में थे जिन्होंने अखंड भारत का सपना देखा था और जातिगत जनगणना किसी भी लिहाज से अखंड भारत के मानदंडों की कसौटी पर खरी नहीं उतरती लेकिन सरकार जातीय जनगणना के विपक्ष के आग्रह को ठंडे बस्ते में डालकर राजनीति का एक नया मोर्चा भी नहीं खुलने देना चाहेगी। हालांकि वह इस मुद्दे को दरकिनार भी नहीं कर सकती। इसलिए जरूरी है कि वह इस मामले में सभी दलों को विश्वास में लेकर ही कोई निर्णय ले क्योंकि यह ऐसी चिंगारी है जो अगर भड़की तो पूरे देश को गृह कलह की आग में झोंक देगी।

बिहार जातिगत जनगणना को लेकर जरूरत से ज्यादा ही उत्साहित नजर आ रहा है। बिहार की नीतीश कुमार सरकार देश में सबसे पहले 18 फरवरी 2019 में विधानमंडल और 27 फरवरी, 2020 में बिहार विधानसभा में जातीय जनगणना कराने का प्रस्ताव पास कर चुकी है और दोनों बार उसने इसे केंद्र सरकार के पास भेजा भी था। प्रधानमंत्री से मिलकर नीतीश कुमार और बिहार के अन्य राजनीतिक दलों ने एक बार फिर इस मामले को सक्रियता प्रदान की है। नीतीश कुमार ने एकबार फिर कहा है कि देश में जातिगत जनगणना होनी चाहिए। इससे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य कमजोर वर्ग की जाति की वास्तविक संख्या के आधार पर सभी के विकास के कार्यक्रम बनाने में सहायता मिलेगी।

देश में पहली बार 1931 में अंग्रेजों ने जातिगत आधार पर जनगणना कराई थी। आजाद भारत में वर्ष 1951 में तत्कालीन सरकार के पास भी जातीय जनगणना कराने का प्रस्ताव आया था, लेकिन तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था।तब तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने कहा था कि जातीय जनगणना कराए जाने से देश का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ सकता है।

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सामने भी पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने का मामला आया था लेकिन मौके की नजाकत को देखते हुए उन्होंने इसे ठंडे बस्ते में डालना ही उचित समझा लेकिन 90 के दशक में जब वीपी सिंह की सरकार बनी तो उन्होंने दबी हुई पत्रावलियों को झाड़-पोंछकर इस तरह पेश कर दिया कि देश में अगड़ा और पिछड़ा संघर्ष की नौबत आ गई। कई सवर्ण छात्रों ने खुद को आग के हवाले कर दिया। प्रधानमंत्री बनने पर जिस विश्वनाथ प्रताप सिंह को ‘राजा नहीं, फकीर’ कहा जाता था, उन्हें अचानक देश का कलंक कहा जाने लगा। अगर नरेंद्र मोदी भी वीपी सिंह की डगर पर आगे बढ़ते हैं तो वे पिछड़ों के मसीहा तो कहलाएंगे लेकिन देश में अंतर्कलह की आग को जोर पकड़ने से रोक पाना फिर किसी के वश का नहीं होगा।

दक्षिण के राज्यों में 70 प्रतिशत से अधिक आरक्षण दलितों और पिछड़ों को दिया जा रहा है, ब्राह्मण वहां हाशिये पर आ गए हैं। जिस तरह ओबीसी के चिह्नितीकरण का अधिकार राज्यों को मिलने के बाद केंद्र सरकार पर आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक बढ़ाने की मांग हो रही है, केंद्र सरकार राज्यों के इस दबाव में आई तो सवर्णों के लिए शिक्षा और नौकरी में अवसर और कम हो जाएंगे।

रही बात वर्ष 2011 की जातीय जनगणना की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की तो करीब 34 करोड़ लोगों की जानकारी गलत होने के आरोप लगे थे। इस तरह की रिपोर्ट के सार्वजनिक होने से किसका भला हो सकता है? वर्ष 2011की जनगणना के मुताबिक हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर 16.76 फीसद थी जबकि 2001 की जनगणना में यह दर 19.92 प्रतिशत थी। मतलब देश की कुल आबादी में जुड़ने वाले हिंदुओं की तादाद में 3.16 प्रतिशत की कमी आई थी। वहीं 2011 जनगणना में भारत में मुसलमानों की आबादी 24.6 फीसदी की दर से बढ़ी थी। ईसाइयों की जनसंख्या वृद्धि दर 15.5 फीसदी, सिखों की 8.4 फीसदी, बौद्धों की 6.1 फीसदी और जैनियों की 5.4 फीसदी है।

केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने पिछले ही महीने 20 जुलाई 2021 को लोकसभा में एक सवाल के जवाब में कहा था कि फिलहाल केंद्र सरकार ने अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा किसी और जाति की गिनती का कोई आदेश नहीं दिया है। विपक्ष का इस बाबत सवाल भी गलत नहीं है कि जो मोदी सरकार मंत्रिमंडल विस्तार के बाद स्वयं को अति पिछड़ा वर्ग के मंत्रियों की सरकार कह रही थी, जो सरकार नीट परीक्षा के ऑल इंडिया कोटे में ओबीसी आरक्षण देने पर अपनी पीठ थपथपाती रही, वही मोदी सरकार जातिगत जनगणना से क्यों डर रही है ? राजग के कुछ सहयोगी दल भी कुछ इसी तरह के सवाल पूछ रहे हैं। इसका जवाब आज नहीं तो कल, सरकार को देना ही होगा।

यह सच है कि वर्ष 1931 तक भारत में जातिगत जनगणना होती रही। वर्ष 1941 में जनगणना के समय जाति आधारित आंकड़े एकत्र तो किए गए, लेकिन उन्हें प्रकाशित नहीं किया गया। वजह चाहे जो भी रही हो। वर्ष 1951 से 2011 तक की जनगणना में हर बार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आंकड़े दिए गए लेकिन पिछड़ी जातियों के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए।वर्ष 1990 में केंद्र की तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग के तहत अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को सरकारी नौकरियों में सभी स्तर पर 27 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा थी। उनके इस निर्णय ने देश, खासकर, उत्तर भारत की राजनीति को बदल कर रख दिया था। इसमें शक नहीं कि विपक्ष में रहते हुए भाजपा और कांग्रेस दोनों ही जातीय जनगणना की मांग करती रही हैं लेकिन सत्ता में आने के बाद ऐसा करने में उन्हें अचानक परेशानी नजर आने लगती है, इन सवालों का भी जवाब तलाशे जाने की जरूरत है।

सत्तारूढ़ दल की परेशानी यह है कि जातीय जनगणना के बाद अगर पिछड़ा वर्ग के आंकड़े ज्यादा हो जाते हैं तो उन्हें उसी अनुपात में आरक्षण देना पड़ेगा और यह बात पहले से ही अवसरों से वंचित सवर्ण समाज के गले नहीं उतरेगी। ओबीसी की आबादी कथित 52 प्रतिशत से यदि घट जाए तो उसके नेता आंकड़ों को गलत ठहराने में अपनी पूरी ऊर्जा लगा देंगे और अगर बढ़ जाए तो उसी अनुपात में आरक्षण बढ़ाने की बात करेंगे। सरकार की हिचक का यह भी एक बड़ा कारण है। जिसकी जितनी संख्या भारी,उसकी उतनी हिस्सेदारी का राग तो विपक्ष पहले ही अलापता रहा है। हाल के दिनों में मोदी सरकार जिस तरह ओबीसी मामले में मुखर हुई है। प्रधानमंत्री ने परंपरा तोड़कर जातिगत आधार पर मंत्रियों का परिचय संसद में दिया था। इसका विरोध भी खूब हुआ था। ऐसे में संभव है कि केंद्र सरकार आने वाले दिनों में जातिगत जनगणना पर पहल भी करे, लेकिन ऐसा होने पर संख्या का भूत सरकार को परेशान जरूर करेगा। जिन जातियों की संख्या कम होगी, उनकी पूछ-परख कम हो जाएगी। इससे सामाजिक कटुता भी बढ़ेगी। वैसे भी मराठा आरक्षण, जाट आरक्षण की मांग जिस तरह बढ़ रही है, उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता।

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आरक्षण किसी भी राष्ट्र की बेहतरी का विकल्प नहीं हो सकता। सारी लड़ाई आरक्षण को लेकर है। असल फसाद इसी मुद्दे पर है और जिस तरह सरकार और राजनीतिक दलों के विचार सामने आ रहे हैं, उससे तो नहीं लगता कि इस देश से कभी आरक्षण व्यवस्था समाप्त भी होगी। सरकार चाहे भी तो हर किसी को नौकरी नहीं दे सकती। इसलिए बेहतर होगा कि वह आरक्षण सुविधा का लाभ पाए लोगों का आर्थिक-सामाजिक सर्वेक्षण कराए और आरक्षण से वंचित लोगों को आरक्षण का लाभ दे जिससे कि विकास की दौड़ में पीछे रह गए लोगों को भी आगे बढ़ने का मौका मिले।

सियाराम पांडेय