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गुरु पूर्णिमा

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गुरु सर्वेश्वर का साक्षात्कार करवाकर शिष्य को जन्म मरण के बंधन से मुक्त कर देते हैं। अतएव संसार में गुरु का स्थान विशेष महत्व का है। पराशर जी की कृपा से वेद व्यास जी का अवतरण इस भारत वसुन्धरा पर आषाढ़ की पूर्णिमा पर हुआ, इसलिए आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को अपने-अपने गुरू की पूजा विशेष रुप से करते हैं व्यास देव जी गुरुओं के भी गुरू माने जाते हैं। यह गुरू पूजा विश्व विख्यात है। इसे व्यास पूजा का पर्व भी कहते हैं। इस पूजोत्सव के अवसर पर सत्संग का भव्य आयोजन किया जाता है। जैसे ज्ञान-विज्ञान के बिना मोक्ष नहीं हो सकता, उसी तरह सद्गुरु से संबंध हुए बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। गुरु इस संसार सागर से पार उतारने वाले हैं और उनका दिया हुआ ज्ञान नौका के समान बताया गया है। मनुष्य इस ज्ञान को पाकर भवसागर से पार होकर कृत-कृत्य हो जाता है फिर उसे नौका और नाविक दोनों की ही अपेक्षा नहीं रहती।

गुरु पूर्णिमा अर्थात सद्गुरु के पूजन का पर्व । गुरु की पूजा, गुरु का आदर किसी व्यक्ति की पूजा नहीं है, व्यक्ति का आदर नहीं है। अपितु गुरु के देह के अंदर जो विदेही आत्मा है, परमब्रह्म परमात्मा है, उसका आदर है, ज्ञान का आदर है, ज्ञान का पूजन है, ब्रह्मज्ञान का पूजन है। गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं। वशिष्ठ महाराज के पौत्र पराशर ऋषि के पुत्र वेद व्यास जी जन्म के कुछ समय बाद ही अपनी मां से कहने लगे, अब हम तपस्या के लिए जा रहे हैं। मां बोली बेटा पुत्र तो माता-पिता की सेवा के लिए होता है, माता-पिता के अधूरे कार्य को पूर्ण करने के लिए होता है और तुम अभी से जा रहे हो ? व्यास जी ने कहा कि मां जब तुम याद करोगी और जरुरी काम होगा, तब मैं तुम्हारे सामने प्रकट हो जाऊंगा। मां से आज्ञा लेकर व्यास जी तप के लिए चल दिए। वे बदरिकाश्रम गए। वहां एकांत में समाधि लगाकर रहने लगे। बदरिकाश्रम में बेर पर जीवन यापन करने के कारण उनका नाम ‘बादरायण’ भी पड़ा। व्यास जी द्वीप में प्रकट हुए, इसलिए उनका नाम ‘द्वैपायन’ भी पड़ा। कृष्ण (काले) रंग के थे इसलिए उन्हें कृष्ण द्वैपायन भी कहते हैं। उन्होंने वेदों का विस्तार किया इसलिए उनका नाम वेदव्यास पड़ा। ज्ञान के असीम सागर, भक्ति के आचार्य, विद्वता की पराकाष्ठा और अकवित्व शक्ति, इनसे बड़ा कोई कवि मिलना मुश्किल है।


भगवान वेदव्यास के नाम से ही आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा का नाम ‘व्यास पूर्णिमा‘ पड़ा है। यह सबसे बड़ी पूर्णिमा मानी जाती है क्योंकि परमात्मा के ज्ञान, परमात्मा के ध्यान और परमात्मा की प्रीति की तरफ ले जाने वाली है यह पूर्णिमा । इसको गुरु पूर्णिमा भी कहते हैं। जब तक मनुष्य को सत्य के ज्ञान की प्यास रहेगी। तब तक ऐसे व्यास पुरुषों और ब्रह्म ज्ञानियों का आदर-पूजन होता रहेगा। व्यास जी ने वेदों के विभाग किए। ब्रह्मसूत्र व्यास जी ने ही बनाया। पांचवा वेद महाभारत व्यास जी ने बनाया । भक्ति ग्रंथ भागवत पुराण व्यास जी की रचना है एवं अन्य सत्रह पुराणों का प्रतिपादन भगवान व्यास जी ने ही किया है। विश्व में जितने भी धर्म ग्रंथ हैं, फिर वे चाहे किसी भी धर्म-पंथ के हों, उनमें अगर कोई सात्विक और कल्याणकारी बातें हैं तो वह सीधे-सीधे भगवान वेद व्यास जी के शास्त्रों से ली गई है, इसलिए ‘व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्वं’ कहा गया है। व्यास जी ने पूरी मानव जाति को सच्चे कल्याण का खुला मार्ग बता दिया है। वेदव्यास जी की कृपा सभी साधकों के चित्त में चिरस्थायी रहे। जिन-जिन के अंतःकरण में ऐसे व्यास जी का ज्ञान, उनकी अनुभूति और निष्ठा उभरी, ऐसे पुरुष अभी भी ऊंचे आसन पर बैठते हैं। तो कहा जाता है कि भागवत कथा में अमुक महाराज व्यास पीठ पर विराजेंगे। व्यास जी के शास्त्र - श्रवण के बिना भारत तो क्या विश्व में कोई भी आध्यात्मिक उपदेशक नहीं बन सकता, व्यास जी का ऐसा अगाध ज्ञान है। व्यास पूर्णिमा का पर्व वर्ष भर की पूर्णिमा मनाने का पुण्य का फल तो देता ही है, साथ ही नई दिशा, नया - संकेत भी देता है और कृतज्ञता का सद्गुण भी भरता है। जिन महापुरुषों ने कठोर परिश्रम कर हमारे लिए सबकुछ किया, उन महापुरुषों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का अवसर, ऋषि ऋण चुकाने का अवसर, ऋषियों की प्रेरणा और आशीर्वाद पाने का अवसर है व्यास पूर्णिमा ।
गुरुर्ब्रम्हा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात्परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे
नमः ।।

लोकेंद्र चतुर्वेदी ज्योतिर्विद