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श्री जगन्नाथ पुरुषोत्तम क्षेत्र की महिमा

Shri Jagannath Puri

भारतवर्ष में चार धामों में परम पावन श्री जगन्नाथ पुरुषोत्तम तीर्थ का प्रथम स्थान है। यह भारत देश के पूर्व में समुद्र तट के निकट ओडिशा राज्य में स्थित है। इस परम पावन तीर्थ को श्री जगन्नाथ पुरी या पुरुषोत्तम क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है। पावन पुरुषोत्तम तीर्थ की गाथा हमारे सनातन धर्म में विविध पुराणों में वर्णित है। स्कन्ध पुराणानुसार पुरुषोत्तम क्षेत्र ही व्यक्त-अव्यक्त रूपी दीनों पर अनुग्रह करने वाला भगवान कृष्ण का उत्युत्तम स्थान है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं करना चाहिए कि यह समस्त मुक्ति क्षेत्रों में श्रेष्ठ तथा अतीव गुप्त है। सर्व नियंता भगवान विष्णु लोक पालनार्थ युग-युग में अवतार ग्रहण करते हैं। भगवान कृष्ण, विष्णु, नारायण जिनके नाम हैं, वह नित्य धर्म की स्थापना करते हैं, यह सर्वज्ञात तथ्य है। इसलिए वे धर्मरूपी महावृक्ष की रक्षा के लिए प्रत्येक युग में नाना मूर्तिरूप में अवतार लेते हैं। जब उनकी इच्छा जगत्सृष्टि हेतु होती है, तब वे जगत्सृष्टि के लिए नाना प्रकार की अवतार मूर्ति का सृजन करते हैं। विधाता बह्मा उनका प्रथम अवतार हैं। महादेव शिव उनका द्वितीय अवतार हैं। सनन्दन आदि तृतीय अवतार हैं। गौतमादि चतुर्थ हैं। इन्द्र उपदि तैंतीस कोट देवता उनके पंचम अवतार हैं। समस्त जगत्प्रपञ्च इन विश्व व्यापक विष्णु का ही स्वरूप है। इसमें संदेह नहीं है।

इनमें लोक रक्षणार्थ पूर्व के दिव्यरूप मत्स्यादि अवतार मूर्ति इन्हीं का स्वरूप हैं। नारायण सर्वोत्तम पुरुषोत्तम क्षेत्र में उन-उन अवतार मूर्तियों को व्यक्त करते हैं, अतः उस परम स्थान क्षेत्र को भौम तथा दिव्य स्थान कहा जाता है। भगवान यहीं नाना मूर्तियों में अवतीर्ण होकर कार्यवश अन्यत्र गमन करते हैं। पृथ्वी के सम्बन्ध में कर्त्तव्य कार्य सम्पादन करके पुनः इसी स्थान पर अवस्थित रहते हैं। इस कारण भगवान यहीं अवस्थित हो जाते हैं। तभी मत्स्यादि दशावतार का दर्शन करने का जो फल होता है, मानव केवल पुरुषोत्तम क्षेत्र के दर्शन से वही फल लाभ करते हैं। इसी कारण पुरुषोत्तम क्षेत्र का एक नाम दशावतार क्षेत्र भी कहा गया है। यह तीर्थ क्षेत्र सतत पाप का आचरण करने वालों को अनायास पापों से छुटकारा दिलवाने वाला तथा लोगों के लिए अत्यन्त अनुग्रह प्रदाता है। इस अनादि संसार के लोगों के पातक या पाप असीम हैं, तथापि पुण्य अत्यल्प होता है। विषय लोलुप मनुष्य कायिक मनसा-वाचा त्रिविध पाप संचित करते हैं। इस पाप के कारण कोई पाप, फल दरिद्रता, दुःख, रोगादि प्राप्त करता है तथा कोई पुण्य के कारण सुख, भोग, सतसंग रूपी पुण्यफल प्राप्त करता है। पुण्यात्मा भी पापसंग के कारण पापार्जन करता रहता है। प्रायश्चित द्वारा पाप समूह वस्तुतः शोधित नहीं हो पाते। फलतः मानव पापजनित दुःख सहने में असमर्थ हो जाता है। वह कदापि पाप मुक्ति नहीं हो पाता। भगवान श्री कृष्ण नारायण ने यह प्राकृतिक नियम देखकर पापीगण के प्रति कृपा करने के लिए अपनी ही मूर्ति के समान पुरुषोत्तम क्षेत्र को सृष्ट किया। उन्होंने इस विचार से इस क्षेत्र की सृष्टि की कि जो मानव मेरे (भगवान के) देहरूप इस क्षेत्र में निवास करेगा, भले ही वह पापीगण में प्रधान हो, उसके श्रद्धायुक्त होकर मेरे क्षेत्र में रहने पर उसके महापातक, आदि सभी पाप एक साथ शुद्ध हो जाते हैं।

यहां भगवान जगन्नाथ देवरूप से विराजमान हैं। दारुमय अर्थात लकड़ी काष्ठ की प्रतिमा के रूप में जगन्नाथ भगवान जीवगण के अनादिकाल से संचित अशेष पापपुंजरूप रुई के देर का विनाश करने के लिए अग्नि के समान हैं। भगवान जगन्नाथ का दर्शन तथा उस क्षेत्र में प्राणत्याग करने से ही वे मनुष्यों को मुक्ति देते रहते हैं। स्वयं सर्वप्रभु भगवान ने इस स्थान को जीवगण के लिए के निश्चित किया है। जिनको पाप तथा पुण्य दोनों क्षयीभूत हो गया है, जो केवल भगवान को चाहते हैं, उनको भगवान की भक्ति प्राप्त कर यहां मरण प्राप्त होता है। यहां दीनों के सभी क्लेश का हरण करने वाले साक्षात जगन्नाथ भगवान करुणा के कारण दोनों बाहुप्रसारित करके प्रसन्न मुखमुद्रा सतत् विराजमान रहते हैं। ये दारूरूप भगवान चराचरात्मक साक्षात ब्रह्मरूप हैं। इनको सर्वभूतों में स्थित सर्वकामप्रद कल्पवृक्ष है।

इनकी उपासना एवं दर्शन द्वारा जिसे जो कामना होती है, उसे अपनी कामना का फललाभ हो जाता है। इस प्रकार से दया के सागर भगवान दारूमय शरीर धारण करके दीन-अनाथ जनगण के प्रति अनुग्रह करके नीलाचल में विराजमान रहते हैं। किसी भी समय उनका श्रद्धा से दर्शन करने से वे निश्चित रूप से अभीष्टफल प्रदान करते हैं एवं मुक्ति चाहने वाले को मुक्तिदान करते हैं। साथ ही वे सत्कार्य विरत मनुष्य की सभी कामना पूरी कर देते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है। जिनका दर्शन करने से मानव भवसागर सम्भूत समस्त क्लेशों से छुटकारा पा जाता है, वे सर्वदुःख नाशक भगवान जगन्नाथ नीलाचल में विराजित हैं। मनुष्य पुरुषोत्तम क्षेत्र में तीर्थराज जल में स्नान करके साक्षात दारुमय ब्रह्म को चर्म-चक्षु से दर्शन करने से वह देहबन्धन से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य भगवान जगन्नाथ की गुण्डीचादि यात्रा का दर्शन करता है, वह उस यात्रा का दर्शन मात्र करके भवसागर पार करके विष्णुलोक गमन करता है।

ज्योतिर्विद लोकेंद्र चतुर्वेदी