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श्रीराम नवमी व्रत की महिमा

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भारत वर्ष संस्कृति-प्रधान देश है। अतएव इसको सभी धार्मिक-सामाजिक कृत्यों, जैसे-व्रत-उपासना, पर्व-त्यौहार आदि का कोई-न-कोई सांस्कृतिक आधार अवश्य होता है। विशेषतया व्रतों में तो सांस्कृतिक उन्नति का एक-न- एक शुभ संदेश निश्चय ही निहित रहता है। यों तो भारतीय ज्योतिष के अनुसार चन्द्रमास के शुक्ल और कृष्ण पक्ष की जो पंद्रह-पंद्रह तिथियां है, उनमें प्रत्येक तिथि व्रत की तिथि है अर्थात् प्रत्येक तिथि को व्रत रखने का नियम है । तथापि श्रीराम नवमी व्रत का विधान अन्य व्रतों से कुछ विशिष्ट है। इसका सांस्कृतिक मूल्य तो है ही, वैज्ञानिक महत्व भी है। साथ ही यह भगवान् श्रीराम और रामभक्त श्रीहनुमान दोनों से सम्बद्ध व्रत के रूप में लोक प्रसिद्ध है।

‘अगस्त्य संहिता’ में लिखा है कि चैत्र शुक्ल पक्ष की मध्यान्ह से होने वाली दशमीयुक्त नवमी व्रत के लिये शुभ है। यदि शुरू उस दिन पुनर्वसु नक्षत्र का योग हो जाए, तब तो वह अतिशय पुण्यदायिनी होती है। नवनी को व्रत-उपवास करके दशमी के दिन पारण करने की शास्त्राज्ञा है। अगस्त्य संहिता के अनुसार चैत्र शुक्ल नवमी के दिन पुनर्वसु नक्षत्र, कर्कलग्न में जब सूर्य अन्यान्य पांच ग्रहों की शुभ दृष्टि के साथ मेष राशि पर विराजमान थे, तभी साक्षात् भगवान् श्रीराम का माता कौशल्या के गर्भ से जन्म हुआ। इसलिये उस दिन जो कोई व्यक्ति दिन भर उपवास और रात भर जागरण का व्रत रखकर भगवान् श्रीराम की पूजा करता है तथा अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार दान-पुण्य करता है, वह अनेक जन्मों के पापों को भस्म करने में समर्थ होता है। शास्त्रों ने बताया है कि कोई भी व्रत हो उसके लिये श्रद्धा-भक्ति और नियम-निष्ठा अवश्य होनी चाहिये। बिना इनके मन की अशुद्धता और अपवित्रता कदापि दूर नहीं हो सकती। जब भौतिकता प्रबल-प्रचंड होकर संस्कृति को निगलने पर उतारू हो जाए, तब श्रद्धा-भक्तिपूर्ण व्रत-उपासना ही आवश्यक होती है।

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श्रीराम नवमी के दिन भगवान् श्रीराम ने जन्म लिया था, अतएव उस दिन उपवास और जागरण के द्वारा उन महापुरूष के कल्याणकारी चरित्र का अनुचिन्तन और अनुशीलन होना चाहिये। ‘व्रतार्क ग्रन्थ के अनुसार रामनवमी का दिन सांस्कृतिक पावनता के एकक्षत्र रामराज्य का दिन है। व्रत के एक दिन पूर्व अष्टमी को इन्द्रिय-संयम का पालन करते हुए उषा-वेला में उठना चाहिये । शान्तचित में नित्यकृत्य समाप्ति के बाद पवित्र नदी या गृह में स्नान करना अधिक उत्तम है। उस दिन किसी वेदवेदांगनिष्णात रामभक्त विद्वान ब्राह्मण का पूजा के निमित्त आचार्य के रूप में वरण करना चाहिए। उनकी पूजा करनी चाहिए। व्रती फलाहार का भक्षण करें तथा आचार्य से रामकथा का श्रवण करता हुआ रात्रि में भूमि पर शयन करें। नवमी के दिन स्वस्थचित्त होकर आचार्य के निर्देशानुसार यदि सम्भव हो तो घर के उत्तर की ओर एक सुन्दर और सुसज्जित मण्डप बनवाकर, उसमें राम पूजा का उत्सव करना चाहिये। दिन में आठों पहर श्रीराम की कथा और उनका कीर्तन तथा स्त्रोत- प्रार्थना आदि के साथ गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप, कपूर, अगरू, कस्तूरी आदि पूजा-द्रव्यों से भगवान् श्रीराम की प्रतिमा की विधिवत् प्रतिष्ठा तथा अर्चना करनी चाहिए। साथ ही माता कौशल्या तथा आर्यश्रेष्ठ श्रीदशरथ, हनुमान आदि की पूजा करनी चाहिये। हवन और वेद पाठ भी करना चाहिये। इस पूजा और वेद पाठ रूप सांस्कृतिक उत्सव से वातावरण की शुद्धि हो जाती है, जिससे महामारी आदि जनपदध्वंसी या देशव्यापी रोगों का प्रकोप शान्त होता है।

जब तक हम तन, मन और वचन से शुद्ध नहीं होते, तब तक न हमारा सांस्कृतिक उत्थान ही सम्भव है और न हमें कोई आध्यात्मिक लाभ ही प्राप्त हो सकता है। इसीलिए आज के दिन यह संकल्प किया जाता है सकलपापक्षयकामोऽहं श्रीरामप्रीतये श्रीरामनवमीव्रतं करिश्ये।’ अर्थात् ‘सब पापों के क्षय की कामना से मैं श्रीराम की प्रसन्नता के लिये श्रीराम नवमी व्रत करूंगा। श्रीराम तो भगवान् हैं अतएव उनकी प्रसन्नता के लिये हृदय की पूर्ण पवित्रता अपेक्षित है। श्रीरामनवमी के दिन स्वयं भगवान् ने नरलीला करने के लिये राम के रूप में अवतार लिया था जबकि रावण और उसके दुर्दात सहायक राक्षसों का अत्याचार बढ़ा हुआ था और सज्जनों का अस्तित्व संकट में था, वे हर पल असुरक्षा के बोध से ग्रस्त थे। रामावतार का कारण बताते हुए ‘व्रतराज ग्रन्थ कहता है


दषाननवद्यार्थाय धर्मसंस्थापनाय च ।
दानवानां विनाशाय दैत्यानां निधनाय च ।।
परित्राणाय साधूनां जातो रामः स्वयं हरिः ।

अर्थात् रावण के वध, दानवों के विनाश, दैत्यों को मारने तथा धर्म की प्रतिष्ठा एवं सज्जनों के परित्राण के लिये स्वयं श्रीहरि राम के रूप में अवतीर्ण हुए। राम नवमी के दिन हमें जन-जन में व्याप्त उनके ज्ञानगम्य रूप के दर्शन के लिये अपने हृदय को संकीर्णता से मुक्तकर ज्ञान की सीमा को विस्तृत करना होगा। तभी हमारी यह राम- प्रार्थना- ‘विश्वमूतर्य नमः, ज्ञानगम्याय नमः, सर्वात्मने नमः’ सफल होगी। श्रीराम विश्वमूर्ति हैं, ज्ञानगम्य हैं, सर्वात्मा हैं। उन्होंने बहुतों को साथ लेकर चलने में ही अपने जीवन की सार्थकता मानी है। उनका जीवन-मन्त्र था- ‘भूमा वै सुखं नाल्पे सुखमस्ति- अर्थात् ‘बहुतों के साथ चलने में ही सच्चा सुख है, अल्प में नहीं। श्रीराम नवमी तो हमें यही सांस्कृतिक संदेश देती है- अपने को शुद्ध करो, भक्ति एवं ज्ञान की सीमा का विस्तार करो, आत्मा के साथ ही विश्वात्मा को पहचानों तथा सद्भाव, समभाव और सहभाव से अपने जीवन को सफल और सार्थक बनाओ, रामभक्ति में लीन होकर राम बन जाओ। ‘श्रीरामार्पणमस्तु’ ।

लोकेंद्र चतुर्वेदी ज्योतिर्विद