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एक भारत-श्रेष्ठ भारत के ध्वजवाहकों की तलाश

PM Narendra Modi addresses IPS probationers from Sardar Vallabhbhai Patel National Police Academy

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल के दिनों में देशवासियों को 'राष्ट्र प्रथम-सदैव प्रथम' का संदेश दिया है। जो देश वसुधैव कुटुंबकम के लिए जाना जाता है, उस देश में राष्ट्र प्रथम का विचार अटपटा लग सकता है लेकिन इस सच को नकारा नहीं जा सकता कि जो खुद को समर्थ नहीं बना सकता, वह दूसरे की भी मदद नहीं कर सकता। नीति भी यही कहती है कि अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है। जब तक हम अपने कार्य-व्यवहार में शुचिता और पारदर्शिता नहीं लाएंगे, तब तक न तो हम अपने जीवन में बदलाव ला सकते हैं और न ही अपने संपर्क में आने वालों की जिंदगी में बदलाव, सुधार और परिष्कार की कल्पना कर सकते हैं।

गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि 'मुखिया मुख सों चाहिए, खान पान को एक। पालै पोसै सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।' प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने मुखिया धर्म का बखूबी निर्वहन कर रहे हैं। उन्होंने भारतीय पुलिस सेवा के परिवीक्षार्थियों को न केवल एक भारत-श्रेष्ठ भारत का ध्वजवाहक करार दिया, बल्कि उन्हें 'राष्ट्र प्रथम, सदैव प्रथम' की भावना के तहत काम करने की नसीहत भी दी। पुलिस को लेकर समाज में जो नकारात्मक धारणा है, उसे बदलने पर उन्होंने जोर दिया। उन्होंने प्रशिक्षु आईपीएस अधिकारियों से अनुरोध किया कि वे क्षेत्र में जो भी निर्णय लें, उसमें देशहित और राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य जरूर तलाशें। प्रधानमंत्री ने प्रशिक्षु पुलिस अधिकारियों को श्रेष्ठ भारत का ध्वजवाहक कहा है, इसका मतलब यह नहीं कि देश के अन्य व्यक्ति या अधिकारी ध्वजवाहक नहीं है। देश को आगे ले जाने की जिम्मेदारी हर नागरिक की है। अच्छा हो कि हम सब नागरिक धर्म निभाएं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पता है कि बूढ़े तोते को राम-राम कहना नहीं सिखाया जा सकता, लेकिन नए तोते को अपने मनोनुकूल ढाला जा सकता है। पुराने अफसरों के रंग-ढंग बदलना कठिन है लेकिन नए अधिकारियों से अपेक्षा की जा सकती है। नए अधिकारियों में देश के लिए कुछ अलग करने का जोश और जज्बा होता है, उन्हें केवल प्रोत्साहित करने की जरूरत होती है। लिखी हुई स्लेट पर कुछ लिखना हो तो पहले मिटाना पड़ता है, तब लिखने की हसरत पूरी हो पाती है। जिस पर भ्रष्टाचार का काला रंग चढ़ जाए, उस पर राष्ट्रप्रेम का रंग वैसे भी नहीं चढ़ता। इसलिए प्रधानमंत्री की इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन नए अधिकारियों की कार्यशैली पर पुरातन शैली हावी न हो, इस पर गहन चिंतन और अनुश्रवण भी करते रहना जरूरी है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी बात इस ढंग से कहते हैं कि लोगों को वह चुभे भी लेकिन उनका दिल न दुखे। वे समाज को आईना दिखाने की बाजीगरी जरूर करते हैं। प्रशिक्षु पुलिस अधिकारियों से उन्होंने कहा है कि लोगों के बीच पुलिस की नकारात्मक धारणा बड़ी चुनौती है। यह सच है कि कोरोना वायरस के शुरुआती दौर में पुलिसकर्मियों को लोगों की मदद करते देख पुलिस के प्रति लोगों की धारणा बदली जरूर थी लेकिन अब फिर पहले जैसा ही हो गया है। देश की सुरक्षा, विधि व्यवस्था बनाने और आतंकवाद से जंग में आत्माहुति के लिए जहां उन्होंने पुलिसकर्मियों की तहेदिल से सराहना की, वहीं उनकी परेशानियों का भी समान भाव से जिक्र किया लेकिन पुलिस बल में आ रही नई पीढ़ी को पुलिस की जनता के मन मस्तिष्क में बेहतर छवि का अहसास कराना भी वे नहीं भूले। उन्हें यह बताने और जताने की कोशिश की कि आजाद भारत में एक बेहतर पुलिस सेवा के निर्माण का प्रयास हुआ है।

हाल के वर्षों में पुलिस प्रशिक्षण से जुड़े बुनियादी ढांचे में भी बहुत कुछ बदलाव आया है। उन्होंने कहा कि 1930 और 1947 के बीच भारतीय युवाओं ने देश की आजादी की जंग लड़ी और अब उन्हें देश के सर्वोन्मुखी विकास की जंग लड़नी है। प्रशिक्षु पुलिस अधिकारियों से उन्होंने खुद को 'सुराज' के प्रति समर्पित करने का आग्रह किया। उन्हें यह समझाइश दी कि उनके करियर के आने वाले 25 साल, भारत के विकास के भी सबसे अहम 25 साल होंगे, इसलिए उनकी तैयारी इसी बड़े लक्ष्य के अनुरूप होनी चाहिए।

इसमें संदेह नहीं कि 1857 की बगावत से घबराए अंग्रेजों ने भारतीयों के दमन और अपने औपनिवेशिक लक्ष्यों को पूरा करने के उद्देश्य से पुलिस एक्ट, 1861 बनाया था, जो आज भी वर्तमान पुलिस प्रणाली का आधार बना हुआ है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि पुलिस प्रणाली में कई सुधारों के बाद भी देश की पुलिस 1861 के पुलिस एक्ट से उबर नहीं पाई है।

इस पूरे अधिनियम की बनावट कुछ इस तरह की है कि उससे जनता के प्रति पुलिस की न जवाबदेही सुनिश्चित होती है और न ही पुलिस आपराधिक न्याय तंत्र में बिना किसी वाह्य दबाव के समुचित स्वायत्तता के साथ खड़ी नजर आती है। पुलिस सुधारों की दिशा में 1861 का पुलिस एक्ट बड़ी बाधा रहा है। 1977 से 1981 के बीच राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने पुलिस को अधिक जवाबदेह बनाने और उसे अधिक कार्यकारी शक्तियां प्रदान करने के लिए सिफारिशें कीं। उसके बाद कई आयोग और कमेटियां गठित हुईं। 1998 में रिबेरो कमेटी, 2000 में पद्मनाभैया कमेटी, 2003 में मलिमथ कमेटी, 2005 में पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी की अध्यक्षता में गठित मॉडल पुलिस एक्ट ड्राफ्टिंग कमेटी, 2007 में गठित द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग।

यह सच है कि सभी आयोगों और कमेटियों ने सामान्य रूप से इस बात पर सहमति जताई है कि पुलिस की संरचना में विशेषकर बड़ी आबादी वाले शहरी क्षेत्रों में बुनियादी बदलाव की जरूरत है। 2006 में सोली सोराबजी की अध्यक्षता में गठित कमेटी ने 1861 के पुलिस एक्ट को प्रतिस्थापित करने के उद्देश्य से एक 'मॉडल पुलिस एक्ट' प्रस्तावित किया। इस नए एक्ट के आधार पर देश के 17 राज्यों ने 1861 के पुलिस एक्ट को छोड़कर नए पुलिस रेगुलेशन बनाए हैं। उत्तरदायित्व और कार्यकारी स्वायत्तता में संतुलन तलाशना, एक ऐसा प्रकरण है जिस पर समय-समय पर सरकारों और न्यायपालिका ने गहन मंथन किया है और पुलिस सुधारों को आवश्यकता बताई है। जब कानून के राज्य की संकल्पना पर बात होती है तो यह देखना जरूरी हो जाता है कि कानून का पहिया बिना किसी की 'हैसियत' देखे समान रूप से घूमे और जब भी घूमे तो उसके तीक्ष्ण नुकीले दांत गरीब और अमीर के फर्क को भूल जाएं, लेकिन यह अक्सर होता नहीं। इसलिए भी पुलिस को अपना व्यवहार बदलने और जन सापेक्ष होने की जरूरत है।

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प्रख्यात कवि केदारनाथ अग्रवाल ने लिखा है कि 'सच ने/जीभ नहीं पायी है/वह बोले तो कैसे/ असली बात कहे तो कैसे/ सच जीते तो कैसे/न्याय मिले तो कैसे/असली का नकली हो जाता/नकली का असली हो जाता/ न्याय नहीं हंसा कर पाता/नीर-क्षीर विलगे तो कैसे/ सच की साख जमे तो कैसे।' यह 'सच की साख' पुलिस की साख से जुड़ी है। इसे गिरने से रोकना पुलिस की सबसे बड़ी चुनौती है। पुलिस का ध्येय वाक्य भी सत्यमेव जयते ही है। सत्य कैसे जीतेगा, जब पुलिस सत्य के साथ खड़ी होगी। यह तभी संभव होगा जब अधिकारी ईमानदार और सत्य के प्रति समर्पित होंगे।

                                                                                                                    सियाराम पांडेय