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इजरायल और हमास की जंग से संकट में Economy !

 

 

पिछले चार वर्षों में वैश्विक अर्थव्यवस्था (Global Economy) को तीन बड़े झटके लगे हैं- कोविड, कोविड के बाद वैश्विक आपूर्ति में अवरोध और फिर रुस-यूक्रेन संकट के चलते कमोडिटी की कीमतों में तेज उछाल। अभी इन लगातार झटकों से अर्थव्यवस्थाएं उबर भी नहीं पाई थी कि चौथा संकट इजरायल और हमास संघर्ष के रूप में सामने है। ऐसा महसूस हो रहा है कि इस समय वैश्विक स्तर पर समझदारी से सोचने और कार्य करने वाले नेताओं का जैसे अकाल पड़ गया हो! अक्टूबर के पहले सप्ताह में द न्यू यॉर्क टाइम्स में थॉमस एल फ्रीडमैन ने लिखा कि आज हम जिस युग में जी रहे हैं वह ‘बिना किसी योजना’ वाला युग है।

इस समय करोड़ो जिंदगीयां दुनिया के चार कद्दावर नेताओं- पुतिन, शी जिनपिंग, बेंजामिन नेतान्याहू और डोनाल्ड ट्रंप के फैसले से प्रभावित हो रही हैं और यह नेता जिन्होंने सिर्फ सत्ता में बने रहने के लिए दुनिया को तबाही के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया हैं।

अमेरिका में अराजकता की स्थिति, चीन की खराब नीति, रूस-यूक्रेन युद्ध में किसी भी प्रकार की शांति तक पहुंचने में असफलता और फिर इजरायल और फिलिस्तीन संकट, यह सभी सामूहिक रूप से हमारे नेताओं के समझदारी से सोचने और कार्य करने की क्षमता पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं। इसी के मद्देनजर आज की स्थिति में भारत मजबूत नजर आता है, क्योंकि हमारे पास एक मजबूत वैश्विक नेता है जिसके पास दूर दृष्टि है, रणनीति है। हम सरकार या मोदी के विरोधी हो सकते हैं, परंतु इससे इनकार नहीं कर सकते हैं कि वैश्विक स्तर पर मोदी और भारत की साख बढ़ी है।

आज विकासशील देश, उभरती अर्थव्यवस्थाएं भारत की ओर आशा और विश्वास के साथ देख रही हैं। एक देश के रूप में रणनीतिक रूप से हम सही निर्णय ले रहे हैं। अन्य विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूत स्थिति में है। नवंबर 2021 में ग्लासगो में कॉप 26 सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री ने पंचामृत लक्ष्य की घोषणा की थी, जिसे पूरे विश्व ने स्वीकार किया है

यह विश्व की भविष्य की समृद्धि की रूपरेखा है जो संपोषणीय विकास को सुनिश्चित करेगी। भारत पूरी ईमानदारी और कर्मठता से इस लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है और यह भी सुनिश्चित कर रहा है विश्व के अन्य देश भी इस पंचामृत रणनीति का पालन करें। भारतीय शेयर बाजार नई ऊंचाई छूने के बाद मध्य पूर्व संकट के कारण गिरावट के दौर में है यह गिरावट बढ़ भी सकती है। तो क्या बाजार की गिरावट में हम भारतीयों के लिए भी शेयर बाजार में निवेश के अवसर है? जी हां! डरिए मत और निवेश करिए। क्योंकि यदि आज विश्व को सफल होना है तो भारत को सफल होना होगा, भारत असफल हो गया तो विश्व असफल हो जाएगा।

सबसे तेजी से उभरती हुई Indian economy

इस समय भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। अनुमान है कि भारत 2027 तक दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था हो जाएगा और 2047 तक विकसित देशों की श्रेणी में आ जायेगा। अभी हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने वित्त वर्ष 2024 के लिए भारत की आर्थिक समृद्धि की दर का अनुमान 6.1 फीसदी से बढ़ाकर 6.3 फीसदी कर दिया है, यह तब है जबकि मुद्रा कोष ने वैश्विक समृद्धि को लेकर चिंता व्यक्त की है और चीन की भी संमृद्धि दर के अनुमान को कम किया है। कुछ दिन पूर्व विश्व बैंक ने भी भारतीय अर्थव्यवस्था के 2023-24 में 6.3 फीसदी की दर संवृद्धि का अनुमान व्यक्त किया था।

हालांकि यह पहले के 6.6 फीसदी के अनुमान से कम है। इस वृद्धि का प्रमुख कारण है घरेलू मांग या खपत में वृद्धि। इन संस्थाओं का मानना है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था (Global Economy) की तुलना में भारतीय अर्थव्यवस्था (indian economy) में अधिक लचीलापन विद्यमान है, इस कारण भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की सबसे तेजी से वृद्धि करने वाली अर्थव्यवस्था आने वाले वर्षों में बनी रह सकती है। विकसित देशों के संगठन आर्थिक विकास एवं सहयोग संगठन (ओईसीडी) द्वारा वर्ष 2023 में भारत की संमृद्धि दर 6.3 प्रतिशत और 2024 में 06 फीसदी रहने का अनुमान लगाया है, जो कि विश्व के अन्य देशों के मुकाबले सबसे अधिक है।

एस एंड पी ने 6.6 प्रतिशत और फिच ने 6.3 प्रतिशत संमृद्धि दर अनुमान लगाया है। पहले मूडिस, नोमूरा और मॉर्गन स्टेनली जैसी एजेंसियां भी भारत के विकास दर के अनुमान को बढ़ा चुकी हैं। मार्गन स्टेनली ने 2023-24 के लिए भारत के विकास दर का अनुमान 6.2 फीसदी से बढ़कर 6.4 फीसदी कर दिया है। इसका कारण मजबूत घरेलू मांग और निर्यात है। आने वाले महीनों में घरेलू मांग और बढ़ने की संभावना है क्योंकि त्यौहारों में लोग जमकर खरीदारी करते हैं। स्पष्ट है कि भारतीय अर्थव्यवस्था उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन कर रही है।

भारतीय रिजर्व बैंक का अनुमान वृद्धि दर के 6.5 फीसदी बने रहने का है। भारत की इस ऊंची समृद्धि दर का कारण मजबूत आर्थिक मांग और निर्यात तथा मजबूत सार्वजनिक आधारित संरचना में निवेश और मजबूत वित्तीय क्षेत्र है। मुद्रास्फीति भी प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में काफी नियंत्रित है। हमारे भारतीय रिजर्व बैंक का हस्तक्षेप बहुत ही सशक्त और गुणवत्तापूर्ण है। जुलाई 2023 में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति 7.4 फीसदी थी, यह 15 महीने का उच्चतम स्तर पर था, जो कि अगस्त और सितंबर में कम होकर क्रमशः 6.8 फीसदी और 05 फीसदी हो गयी।

वस्तुत: कोरोना संकट के बाद से ही विश्व की अनेक अर्थव्यवस्थाओं का चीन पर भरोसा कम होता जा रहा है, इसीलिए कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां चीन से अपने निर्माण इकाइयों को अन्य देशों में स्थानांतरित कर रही है। अनेक कंपनियों का भारतीय अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र पर भरोसा अधिक है तथा साथ ही सरकार उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना के साथ-साथ अनेक प्रकार के दूसरे प्रोत्साहन भी प्रदान कर रही है, जिससे विदेशी निवेश में वृद्धि हो रही है।

आज भारत विकसित देशों से अत्यंत कम कीमत में दूसरे देशों के उपग्रह अंतरिक्ष में भेज रहा है, बिल्कुल घरेलू तकनीक के जरिए दूसरे देशों से काफी कम खर्च कर भारत चंद्रमा के दक्षिणी हिस्से में अपना चंद्रयान उतारने में और फिर गगनयान के परीक्षण में सफल रहा है, वीजा और मास्टर कार्ड जैसे कंपनियों को पीछे छोड़ते हुए भारत में बने यूपीआई भुगतान तंत्र में डिजिटल भुगतान में जो सफलता प्राप्त की है पूरा विश्व देखकर दंग है! ऐसे में भारत ने अर्थव्यवस्था के वैश्विक एकीकरण पर भी ध्यान दिया है।

ग्लोबल बॉन्ड इंडेक्स में सरकारी बॉन्ड के सम्मिलित होने से बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा कोष बनने की संभावना है। भारत अपने निर्यात क्षमता और निर्यात बाजारों का तेजी से विस्तार और विविधीकरण कर रहा है तथा आधुनिक तकनीक और मानव संसाधन के विकास में भी काफी तेजी से देश आगे बढ़ रहा है। वर्ष 2025 तक भारत ने 30,000 किलोमीटर अतिरिक्त राजमार्ग बनाने का लक्ष्य रखा है, 400 बंदे भारत, जो कि देश में ही विकसित रेल है, 200 से ज्यादा एयरपोर्ट बनाने का लक्ष्य रखा गया है और साथ ही अपने बंदरगाहों की क्षमता भी दुगनी करना चाह रहा है।

स्पष्ट है इससे अर्थव्यवस्था में बड़े पैमाने पर निवेश और रोजगार सृजन होगा और उत्पादन बढ़ेगा। जी20 में घोषित भारत मध्य पूर्व यूरोपीय आर्थिक गलियारा (आईएमईसी) के माध्यम से भविष्य में भारतीय कंपनियों के लिए नए अवसरों का सृजन होगा और चीन की तुलना में भारत की प्रतिस्पर्धी क्षमता भी बढ़ेगी। इस समय भारत एक विश्वसनीय देश के रूप में वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में नई और महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। जिसके लिए यह प्रयासरत है।

विनिर्माण क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने पर जोर

1980 के बाद भारत की समृद्धि में सबसे अधिक योगदान सेवा क्षेत्र का रहा है। जबकि चीन में और अन्य उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में बड़े ही मशीनी ढंग से विनिर्माण क्षेत्र में ज्यादा तेज वृद्धि हुई। अभी भी भारत का विश्व के कुल निर्यात में हिस्सा पौने दो प्रतिशत से कम है। विनिर्माण क्षेत्र में अपेक्षित समृद्धि नहीं होने के कारण ही भारतीय अर्थव्यवस्था (indian economy) कई मोर्चों पर चीन से पीछे रही है। 2014 के बाद मेक इन इंडिया कार्यक्रम के तहत सरकार ने विनिर्माण क्षेत्र के वृद्धि को तेज करने का प्रयास किया, परन्तु अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी।

2017- 18 से 2022-23 के मध्य जहां सेवा क्षेत्र का निर्यात 117.5 अरब डॉलर से बढ़कर 322.7 अरब डालर हो गया, वहीं वस्तुओं के निर्यात में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई यह 309 अरब डॉलर से बढ़कर 444.3 अरब डॉलर हुआ। वस्तुओं के निर्यात में हुई धीमी वृद्धि का कारण विनिर्माण क्षेत्र का पिछड़ना रहा है। हाल के वर्षों में सरकार ने इस दिशा में काफी तेजी से कार्य किया है। इज ऑफ़ डूइंग बिजनेस इंडेक्स में भारत की स्थिति में काफी सुधार हुआ है, 2014 के 134 रैंक से 63 हो गई है।

इसी प्रकार वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मकता सूचकांक में भी भारत 60वें स्थान से 43वें स्थान पर आ गया है। विश्व बौद्धिक सम्पदा संगठन द्वारा प्रकाशित वैश्विक नवाचार सूचकांक 2023 में भारत 132 देशों में 40वें स्थान पर है, 2015 में 81वें स्थान पर था। पिछले कुछ वर्षों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में काफी वृद्धि हुई है। पीएम गति शक्ति योजना, उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना, नेशनल सिंगल विंडो क्लीयरेंस, जीआईसी मैप्ड लैंड बैंकजै से कई फोकस्ड योजनाओं से विनिर्माण क्षेत्र में उत्पादन बढ़ने की संभावना है। नीति निर्माता अगले 05 वर्षों में विनिर्माण का हिस्सा 16 प्रतिशत से बढ़कर 30 प्रतिशत करना चाहते हैं।

इसके लिए विनिर्माण क्षेत्र के उत्पादन में 14 फीसदी वार्षिक वृद्धि की जरूरत होगी, जो कि अभी 10 फीसदी के आसपास है। यह कठिन लक्ष्य है, लेकिन यदि सरकारी योजनाओं का लाभ जमीनी स्तर पर आया तो इसे प्राप्त किया जा सकता है। आधारिक संरचना के विकास के लिए इस समय बड़े पैमाने पर निवेश हुआ है और आधारिक संरचना संबंधी कमियों को तेजी से दूर किया जा रहा है। भारत भविष्य की जरूरत को ध्यान में रखकर योजनाएं बना रहा है, भविष्य की प्रौद्योगिकी में निवेश को प्रोत्साहन दे रहा है। यह एक अच्छा संकेत है।

जीबीआई -ईएम ग्लोबल इंडेक्स में सरकारी बॉन्ड

1991 में आर्थिक सुधारों की शुरुआत के पश्चात् 1993 में जब सरकार ने शेयर बाजार को विदेशी निवेशकों के लिए खोला था उसके बाद से शेयर बाजार में क्रांतिकारी बदलाव हुए। ग्लोबल बॉन्ड इंडेक्स में भारत सरकार के बॉन्ड का सम्मिलित होना भी एक क्रांतिकारी कदम है। यह भारत के वित्तीय बाजारों के वैश्वीकरण की शुरुआत है। भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धि है और यह अर्थव्यवस्था की मजबूती को दर्शाता है, क्योंकि वैश्विक बॉन्ड बाजार किसी देश की आर्थिक स्थिति और उसकी साख का एक पैमाना है।

जेपी मॉर्गन का जीबीआई -ईएम ग्लोबल इंडेक्स दुनिया के प्रमुख बॉन्ड सूचकांक में है, भारत सरकार के बॉन्ड का इसमें शामिल होना एक नई शुरुआत है, जिससे सरकारी बॉन्ड में विदेशी निवेश में वृद्धि होगी। इसके बाद अब पूरी संभावना है कि वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां भारत के साख में महत्वपूर्ण सुधार करेंगी और भारत अन्य दो प्रमुख सूचकांकों ब्लूमबर्ग और एफटीएसई रसेल में भी सम्मिलित हो सकता है। इससे भारत में विदेशी पूंजी का प्रवाह और अधिक बढ़ेगा।

इस समय दुनिया की सबसे तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था के रूप में भारतीय अर्थव्यवस्था को कोई भी देश या संस्था अनदेखा नहीं कर सकते हैं। भारत में सरकारी बॉन्ड का बाजार लगभग एक ट्रिलियन डॉलर का है, जिसमें अधिकांश हिस्सा सरकारी बैंकों (38 फीसदी), सरकारी बीमा कंपनियों (25 फीसदी )और रिजर्व बैंक (16 फीसदी) का है, जबकि विदेशी निवेशकों का हिस्सा मात्र 02 फीसदी है तथा अब 2025 तक यह हिस्सा बढ़कर 04 फीसदी और 2021 तक 09 फीसदी (लगभग 190 अरब डॉलर) हो जाने की पूरी संभावना है।

इससे सरकार के घरेलू ऋण में कमी आ सकती है। सरकारी बॉन्ड में विदेशी निवेश के बढ़ने से देश में विदेशी मुद्रा का प्रवाह बढ़ेगा, रुपए को भी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मजबूती मिलेगी और रिजर्व बैंक को ब्याज दर कम रखने में भी मदद मिलेगी। इससे भारत में निवेश की लागत में भी कमी आएगी, पूंजी बाजार में निजी उद्यमियों के लिए पूंजी आसानी से उपलब्ध होगी। सबसे खास बात यह है कि सरकार अंतर्राष्ट्रीय बाजार में साख को बनाए रखने के लिए वित्तीय अनुशासन को बनाए रखने के लिए और मुद्रा स्फ़ीति को नियंत्रित करने के लिए सदैव दबाव में रहेगी।

वैश्विक अस्थिरता से अनिश्चितता और चिंता

कोरोना संकट के बाद रूस यूक्रेन युद्ध का संकट पूरा विश्व झेल चुका है जिसका असर वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला पर पड़ा और तेल गैस की कीमतों के साथ-साथ खाद्यान्न कीमतों में भी तेज वृद्धि हुई। इसका असर विश्व की सभी अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ा और मुद्रास्फीति तथा मंदी के दुष्चक्र में अर्थव्यवस्थाएं झूलती रहीं। अभी भी कई अर्थव्यवस्थाएं निम्न आर्थिक वृद्धि का शिकार हैं। अब इजरायल फिलिस्तीन संघर्ष ने कच्चे तेल की कीमतों में और तेज वृद्धि की संभावना प्रबल कर दी है। यूक्रेन संकट से जहां इस समय मेटल्स की कीमतों पर काफी असर हो रहा है, इजरायल फिलिस्तीन संकट से कच्चे तेल और गैस की कीमतें भी बढ़नी शुरू हो चुकी हैं।

इस वर्ष जुलाई से ही तेल की कीमतों में लगातार वृद्धि हो रही है, सितंबर से अक्टूबर के बीच में इसमें लगभग 15 फीसदी की वृद्धि हो चुकी है, क्योंकि ओपेक देशों ने कच्चे तेल के उत्पादन और आपूर्ति में कटौती का निर्णय लिया है। पहले से ही अनेक कठिनाइयों से जूझ रही वैश्विक अर्थव्यवस्था को यह संकट नए सिरे से प्रभावित करेगा। भारत अपनी जरूरत का 80 फीसदी से अधिक कच्चा तेल विदेश से आयात करता है, इसलिए कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों से इसके आयात बिल पर असर पड़ता है और व्यापार घाटा तथा चालू खाता घाटा बढ़ जाता है।

दूसरी तरफ कच्चे तेल की कीमत बढ़ने से अर्थव्यवस्था में मुद्रा स्फ़ीति भी बढ़ने की संभावना प्रबल हो जाती है, क्योंकि बढ़ती हुई तेल कीमत लगभग सभी वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों को प्रभावित करती हैं। ऐसे में फिर व्यापार घाटा बढ़ने से रुपए पर दबाव पड़ता है और रुपए के अंतर्राष्ट्रीय मूल्य में कमी आती है, जिससे आगे चलकर आयात और महंगे होते हैं जो घरेलू स्तर पर कीमतों को और बढ़ाते हैं और लोगों की क्रय शक्ति क्षमता में कमी आती है। विदेशी निवेशकों का अर्थव्यवस्था में भरोसा भी कम होता है।

इजरायल-हमास युद्ध का असर

मध्य पूर्व में दुनिया के तेल भंडार का एक बड़ा हिस्सा केंद्रित है। कुल वैश्विक कच्चे तेल के भंडार का 48 फीसदी और गैस भंडार का 40 फीसदी यहीं पर है। वैश्विक तेल उत्पादन में इसका हिस्सा 30 फीसदी है और गैस उत्पादन में 18 फीसदी है। यह तेल और प्राकृतिक गैस के प्रमुख निर्यातक के रूप में वैश्विक ऊर्जा बाजार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इजरायल हमास संकट यदि लंबा खींचता है और इसमें मध्य पूर्व के दूसरे देश भी सम्मिलित होते हैं, तो इससे वैश्विक ऊर्जा आपूर्ति गंभीर रूप से प्रभावित होगी। इस संकट के शुरू होने के बाद से तेल की कीमतों में पहले ही काफी वृद्धि हो चुकी है।

यदि इस क्षेत्र में अस्थिरता बढ़ती है तो पूरी दुनिया में तेल और गैस की कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव होगा और इसका भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ेगा। ऐसे में देखना यह है कि ओपेक इस संकट पर किस प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। निश्चित ही ओपेक की कार्यवाही इस बात पर निर्भर करती है कि यह युद्ध कितना लंबा खींचता है और उसकी गंभीरता कितनी रहती है, साथ ही मध्य पूर्व में कच्चे तेल के उत्पादन और परिवहन मार्गों/लॉजिस्टिक्स पर इसका क्या असर पड़ता है तथा इस अवधि में तेल व गैस के वैश्विक मांग की स्थिति क्या रहती है।

यदि इजरायल-हमास का संघर्ष मध्य पूर्व के अन्य देशों में भी फैलता है और हॉर्मुज जलडमरू मध्य जैसे महत्वपूर्ण मार्गों को प्रभावित करता है, तो तेल की आपूर्ति प्रभावित होगी और वैश्विक बाजार में इसकी कीमतों में वृद्धि की पूरी संभावना है। यदि संघर्ष में हिजबुल्ला या ईरान सम्मिलित हो जाता है, तो अमेरिका ईरानी तेल निर्यात पर कड़े प्रतिबंध लगा सकता है, जिससे स्थिति और गंभीर हो सकती है। ऐसे में ओपेक कच्चे तेल का उत्पादन बढ़ाने या वैश्विक तेल के बाजार की स्थिरता बनाए रखने के लिए गैर ओपेक तेल उत्पादकों के साथ मिलकर किस प्रकार का निर्णय लेता है यह बेहद महत्वपूर्ण होगा।

भारत की 60 फीसदी से अधिक कच्चे तेल की मांग मध्य पूर्व पर निर्भर रही है, इसीलिए हाल के वर्षों में भारत ने अपनी ऊर्जा संबंधी जोखिमों को अच्छी तरह से पहचाना है और रणनीतिक रूप से अपने तेल आयात में विविधता लाने के लिए काफी प्रयास किया है। रूस-यूक्रेन संघर्ष के मध्य भारत ने रूस से तेल आयात छूट के अवसर का पूरा फायदा उठाया और वैश्विक कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि के बावजूद भारत कम कीमत पर की निर्भरता कम करने के लिए भारत ने अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और उत्तरी अमेरिका जैसे क्षेत्रों से विकल्प तलाशने पर भी ध्यान केंद्रित किया है।

भारत और इजरायल व्यापार सहयोग

1992 के बाद से भारत और इजरायल के मध्य व्यवसायिक सहयोग काफी बढ़ा है। हाल के वर्षों में स्टार्टअप आदि के क्षेत्र में दोनों देशों के मध्य सहयोग बढ़ा है। अभी 05 मई, 2023 को दोनों देशों में औद्योगिक अनुसंधान विकास सहयोग पर एक समझौता ज्ञापन किया जिसमें नवाचार, स्टार्टअप और प्रौद्योगिकी सहित कई क्षेत्रों में सहयोग की बात है। इससे भारत के इजरायल की तकनीक तक पहुंच बढ़ी है और कृषि, जल, रक्षा, साइबर सुरक्षा, स्वास्थ्य सेवा जैसे कई महत्वपूर्ण क्षेत्र से संबंधित चुनौतियां का समाधान करने में मदद मिली है।

इजरायल को भी भारत के बाजार तक उसकी पहुंच का विस्तार हुआ है और नए अवसर मिले हैं। कृषि के क्षेत्र में हिंद इजरायल कृषि परियोजना ने पूरे भारत में 28 उत्कृष्ट केंद्र की स्थापना की है, जो उन्नत कृषि तकनीक को बढ़ावा देने और कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए प्रौद्योगिकी साझा करने के लिए है। दोनों देशों में पानी की कमी के मुद्दों से निपटने के लिए भी बड़े पैमाने पर सहयोग किया है। साइबर सुरक्षा के क्षेत्र में भी इजरायल भारत को महत्वपूर्ण सहयोग दे रहा है। इसी प्रकार हेल्थ केयर और रक्षा के क्षेत्र में भी दोनों देशों का आपसी सहयोग बढ़ा है।

निश्चित ही युद्ध के कारण इन परियोजनाओं में सहयोग की गति धीमी होगी, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण में देरी हो सकती है, फंडिंग की समय सीमा प्रभावित हो सकती है, आयात व निर्यात की आपूर्ति श्रृंखला भी बाधित हो सकती है, जिसके कारण कुछ स्टार्टअप संस्थापक चिंतित भी है। परंतु भारत इजरायल के वर्तमान संबंध काफी मजबूत और महत्वपूर्ण हैं, दीर्घकाल में इसमें किसी परिवर्तन की संभावना कम है तथा भारत का इजरायल के साथ व्यापार शेष धनात्मक है।

खनिज ईंधन, खनिज तेल, मोती, कीमती और अर्द्ध कीमती पत्थर, विद्युत मशीनरी, जैविक रसायन, हथियार और गोला-बारूद दोनों देशों के मध्य व्यापर के प्रमुख बिंदु हैं। भारत इजरायल को प्रमुख रूप से पेट्रोकेमिकल उत्पाद जैसे डीजल और रसायन, दवाइयां ,और विभिन्न औद्योगिक उपकरण का निर्यात करता है, कुछ हस्त निर्मित उत्पादों जैसे चमड़े से बने पदार्थ इत्यादि का भी निर्यात भारत इजरायल को करता है; जबकि भारत प्रमुख रूप से विमान प्रौद्योगिकी, हीरा इत्यादि इजरायल से आयात करता है। पिछले वित्तीय वर्ष में, इजरायल को निर्यात 8.5 बिलियन डॉलर था, जो भारत के व्यापारिक निर्यात का 1.9 फीसदी था। आयात 2.3 बिलियन डॉलर था, जो भारत के व्यापारिक आयात का 0.3 फीसदी था।

युद्ध जैसे परिदृश्य में, युद्ध प्रभावित देश के साथ व्यापार करने वाले निर्यातकों को उच्च बीमा प्रीमियम और शिपिंग लागत का भुगतान करना पड़ता है। हालांकि, जब तक युद्ध नहीं बढ़ता, भारत को कोई नुकसान होने की संभावना नहीं है। भारत के कुल व्यापार में इजरायल का हिस्सा कम होने से इस पर बहुत असर पढ़ने की संभावना नहीं है। हां, यदि संघर्ष बढ़ता है और मध्य पूर्व के अन्य देशों में भी फैलता है और उसके कारण अंतर्राष्ट्रीय मार्ग प्रभावित होते हैं तो भारत का व्यापार प्रभावित हो सकता है।

अप्रैल 2000 से अगस्त 2023 के दौरान भारत से संचयी विदेशी प्रत्यक्ष निवेश 383 मिलियन डॉलर था। भारतीय कंपनियां विलय और अधिग्रहण के माध्यम से और शाखा कार्यालय खोलकर इजरायल में अपनी उपस्थिति दर्ज कर रही हैं। टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज लिमिटेड, इंफोसिस लिमिटेड, टेक महिंद्रा लिमिटेड और विप्रो लिमिटेड जैसी आईटी कंपनियों ने इजरायल में अधिग्रहण या निवेश किया है, जबकि भारतीय स्टेट बैंक तेल अवीव में एक शाखा संचालित करता है। साईसंकेट एंटरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड, सन फार्मास्युटिकल इंडस्ट्रीज लिमिटेड, जैन इरिगेशन सिस्टम्स लिमिटेड और लोहिया ग्रुप का भी निवेश है। दिसंबर 2022 में, अडानी पोर्ट्स एंड स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन लिमिटेड ने इजरायल के गैडोट ग्रुप के साथ साझेदारी के माध्यम से हाइफ़ा पोर्ट कंपनी में निवेश किया है।

Indian economy पर भरोसा कीजिए और अपनी कुछ बचत यहां भी निवेशित करिए

आंतरिक राजनीतिक अस्थिरता और वैश्विक अनिश्चितताओं का निवेशकों पर काफी प्रभाव पड़ता है। एक प्रभाव तो आर्थिक संवृद्धि की कमी के कारण अर्थव्यवस्था पर पड़े नकारात्मक प्रभाव के कारण उत्पन्न होता है, दूसरा प्रभाव मनोवैज्ञानिक होता है। अत्यधिक अनिश्चितता निवेशकों को जोखिम लेने से रोकती है और वह बड़े निवेशक निवेश से पीछे हटने लगते हैं जिसका असर बाजारों पर भी पड़ता है।

अभी वर्तमान में शेयर बाजार को देखें तो भारतीय निवेशकों का बाजार पर विश्वास बना हुआ है। परंतु विदेशी निवेशक अत्यधिक सतर्क हैं और पिछले दो महीना में लगभग 23,000 करोड़ रुपए की बिकवाली कर चुके हैं। वैश्विक हालात सुधरने और लोकसभा चुनाव समाप्त होने तक बाजारों में स्थिरता बनी रहने को उम्मीद है। निश्चित ही इस हालत में निवेशकों को सतर्क रहना चाहिए। परंतु जो निवेशक बाजार में व्यवस्थित और सतत निवेश कर रहे हैं और दीर्घकाल को ध्यान में रखकर निवेश कर रहे हैं उन्हें कुछ भी चिंता करने की आवश्यकता नहीं है, वे अंततः एक बेहद अच्छे और पर्याप्त लाभ के हकदार होंगे।

वामपंथियों और समाजवादियों ने निजी क्षेत्र और बाजार को लेकरअजब टाइप का हवा/हौवा बना रखा है। पूंजीपति अपनी मेहनत और चतुराई से पूंजी सृजित करते हैं और इसके द्वारा वह देश में रोजगार, उत्पादन और आय में योगदान करते हैं। शेयर बाजार देश के आर्थिक विकास का एक सूचक है। निश्चित ही आय व धन की समान वितरण की स्थिति में विकास समावेशी नहीं हो पाता है, परंतु पूंजी, उत्पादन और बाजार के विस्तार का लाभ अंततः पूरी अर्थव्यवस्था के सभी घटकों को लाभ पहुंचाता है, तो क्या बढ़ती हुई बाजार और पूंजी का लाभ आम व्यक्तियों को नहीं मिलना चाहिए!

हमारे दिमाग में यह बैठा दिया गया है कि शेयर बाजार में पैसा डूब जाता है। शेयर बाजार में निवेश को एक प्रकार का जुआ कहा जाता है। क्या सच में है जुआ है? आखिरकार बाजार में किसे निवेश करना चाहिए? क्या सिर्फ उसे जिसे अर्थव्यवस्था और बाजार की समझ हो? क्या उससे जिसके पास इतना समय हो कि वह शेयर बाजार को लगातार वॉच कर सके और बाजारों में होने वाले उतार-चढाव के अनुसार अपने निवेश को संचालित कर सके? नहीं।

मेरा अनुभव है कि कभी-कभी अर्थव्यवस्था और बाजार की ज्यादा समझ रखने वाले ज्यादा गच्चा खा जाते हैं और ज्यादा कुछ करने के चक्कर में प्राय: नुकसान उठाते हैं। शेयर बाजार जुआ तब है जब आप शेयर बाजार में रोज खरीद फरोख्त करते हैं, ट्रेडिंग करते हैं।

अभी सेबी की एक रिपोर्ट आई थी जिसमें कहा गया है कि 93 फीसदी ट्रेडर शेयर बाजार में नुकसान उठाते हैं। यह वे लोग हैं, जो शेयर बाजार की अच्छी समझ रखते हैं। बाजार के लिए सबसे महत्वपूर्ण है अनुशासन, धैर्य और संतोष यानी अति लालच का ना होना। मैंने देखा है बहुत सामान्य पढ़े-लिखे लोग, जिन्हें अर्थव्यवस्था और शेयर बाजार की समझ कम है, लेकिन वे जिस क्षेत्र से जुड़े हुए हैं उसकी गहराइयों और बारीकियां से परिचित हैं, अर्थव्यवस्था में हो रहे उन बदलाव को नजदीक से देख रहे है।

जिसका असर उनके अपने आसपास के जीवन पर या अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। उनका नजरिया स्पष्ट होता है कि इस क्षेत्र में पैसा लगाओ यह धंधा कभी मंदा होने वाला नहीं है। फिर वे इसी प्रकार की दो चार क्षेत्रों की बड़ी विश्वसनीय कंपनियों को पकड़ कर लम्बे समय के लिए निवेश करते हैं। जिन्हें ज्यादा डर हो बाजार से या जिन्हें बाजार के बारे में बिलकुल जानकारी नहीं हो, उन्हें एसआईपी के जरिए म्युचुअल फंड्स में लंबे समय के लिए निवेश करना चाहिए।

आज भारत “तृतीय विश्व” के देशों की श्रेणी से निकलकर विश्व की “तीसरी” बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है। भारतीय अर्थव्यवस्था में आयोजन के प्रथम तीन दशक में जहां ‘हिंदू संवृद्धि दर’ (क्योंकि हम 3.5 फीसदी से अधिक की वृद्धि दर हासिल करने में असफल रहे थे) से और उसके बाद के चार दशकों में ‘नव हिंदू संवृद्धि दर’ (जबकि वृद्धि दर औसतन 6.5 फीसदी रही) से वृद्धि हुई, वहीं भविष्य में सुपर संवृद्धि दर की संभावना है।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र के भूतपूर्व विभागाध्यक्ष और अर्थशास्त्री प्रोफेसर प्रशांत कुमार घोष के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था में सामाजिक आर्थिक चुनौतियों, अर्थव्यवस्था की क्षमता और हाल के कुछ वर्षों में हुए नीतिगत सुधारों के मद्देनजर भविष्य में तेज समृद्धि की पूरी संभावना है, जिसे वे ‘सुपर हिंदू ग्रोथ’ की संज्ञा देते हैं। इस तेज उछाल के लिए भारत सामाजिक और आर्थिक आधारिक संरचना की मजबूती और विस्तार पर विशेष जोर दे रहा है। साथ ही श्रम सुधारों और कृषि में उत्पादन बढ़ाने और सुधारों पर भी फोकस किया है।

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विकास समावेशी और संपोषणीय हो इसकी रणनीति दूरदर्शी सोच से बनाई गई है। जब अर्थव्यवस्था का विस्तार होगा उत्पादन, आय बढ़ेगी, अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ेगा, तो कंपनियों की बिक्री और लाभ में भी वृद्धि होगी, शेयर बाजार का आकार भी बढ़ेगा। पिछले तीन-चार वर्षों में ऐतिहासिक वैश्विक संकट के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती और तेज से वृद्धि का ही परिणाम है कि शेयर बाजार ऊंचाइयों पर है। निश्चित ही इसमें गिरावट आएगी, यह गिरावट बहुत तेज और ज्यादा भी हो सकती है। बाजार में तेज वृद्धि के बाद बाजार गिरावट का कोई न कोई बहाना भी ढूंढता है।

मध्य पूर्व का संकट बढ़ने पर बाजार को गिरने का बहाना मिलेगा, लेकिन अगले चार-पांच या 10 वर्षों का नजरिया लेकर के चलें तो निश्चित ही भविष्य उज्जवल है और वह शेयर बाजार की ऊंचाई में भी दिखेगा। इसलिए बाजार से दूरी मत बनाइए। बाजार में सार्थक निवेश करिए। अपने आय का कम से कम 20 फीसदी हिस्सा अवश्य बचाइए और अपने बचत का कम से कम 60 फीसदी हिस्सा वित्तीय परिसंपत्तियों में निवेश करिए, जिसका कम से कम आधा शेयर बाजार और म्युचुअल फंड में हो। इस पर विस्तार से किसी अगले लेख में चर्चा करूंगा।

डॉ. उमेश प्रताप सिंह

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