नई दिल्लीः प्रबोधिनी एकादशी को देवोत्थान एकादशी के रूप में भी जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि विष्णु शयनी एकादशी को सोते हैं और प्रबोधिनी एकादशी पर जागते हैं। इस प्रकार इस दिन को प्रबोधिनी एकादशी का नाम दिया गया है। इस साल देवोत्थान एकादशी 4 नवंबर (शुक्रवार) को है। इसे देव उठनी एकादशी भी कहा जाता है। चतुर्मास में हिन्दू धर्म में हिन्दू विवाह निषिद्ध होता है। प्रबोधिनी एकादशी से हिंदू धर्म में विवाह के मौसम की शुरुआत का प्रतीक है। प्रबोधिनी एकादशी के बाद कार्तिक पूर्णिमा आती है। जिसे देव दीपावली या देवताओं की दिवाली के रूप में मनाया जाता है। कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी व्रत का फल सौ राजसूय यज्ञ तथा एक सहस्र अश्वमेघ यज्ञ के फल के बराबर होता है। इसी माह से विवाह, मुंडन संस्कार जैसे महत्वपूर्ण मांगलिक कार्य अब शरू होगें।
देवोत्थान एकादशी के पूजा की विधि
देवोत्थान एकादशी के दिन पूरे दिन व्रत कर दिन में एक बार फल खाया जाता है। भगवान विष्णु को चार मास की योग-निद्रा से जगाने के लिए घण्टा, शंख, मृदंग आदि वाद्यों की मांगलिक ध्वनि के बीच श्लोक पढकर जगाते हैं। इसके बाद भगवान विष्णु को तिलक लगाकर, फल, नये वस्त्र अर्पित कर मिष्ठान का भोग लगाया जाता है। इसके बाद देवउठनी एकादशी की व्रत कथा सुन भगवान विष्णु की आरती की जाती है।
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देवउठनी एकादशी की व्रत कथा
एक बार नारदजी ने ब्रह्माजी से प्रबोधिनी एकादशी के व्रत का फल बताने का कहा। ब्रह्माजी ने सविस्तार बताया। कहा-हे नारद! एक बार सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र ने स्वप्न में ऋषि विश्वमित्र को अपना राज्य दान कर दिया। अगले दिन ऋषि विश्वमित्र दरबार में पहुचे तो राजा ने उन्हें अपना सारा राज्य सौंप दिया। ऋषि ने उनसे दक्षिणा की पाँच सौं स्वर्ण मुद्राएँ और माँगी। दक्षिणा चुकाने के लिए राजा को अपनी पत्नी एवं पुत्र तथा स्वयं को बेचना पड़ा। राजा को एक डोम ने खरीदा था। डोम ने राजा हरिशचन्द्र को श्मशान में नियुक्त करके मृतकों के सम्बन्धियों से कर लेकर, शव दाह करने का कार्य सौंपा था। उनको जब यह कार्य करते हुए कई वर्ष बीत गए तो एक दिन अकस्मात् उनकी गौतम ऋषि से भेंट हो गई। राजा ने उनसे अपने ऊपर बीती सब बातें बताई तो मुनि ने उन्हें इसी अजा (प्रबोधिनी) एकादशी का व्रत करने की सलाह दी। राजा ने यह व्रत करना आरम्भ कर दिया। इसी बीच उनके पुत्र रोहिताश का सर्प के डसने से स्वर्गवास हो गया। जब उसकी माता अपने पुत्र के अन्तिम संस्कार के लिए श्मशान पर लायी तो राजा हरिशचन्द्र ने उससे श्मशान का कर माँगा। परन्तु उसके पास श्मशान कर चुकाने के लिए कुछ भी नहीं था। उसने चुन्दरी का आधा भाग देकर श्मशान का कर चुकाया। तत्काल आकाश में बिजली चमकी और प्रभु प्रकट होकर बोले, ‘महाराज! तुमने सत्य को जीवन में धारण करके उच्चतम आदर्श प्रस्तुत किया है। तुम्हारी कर्तव्य निष्ठ धन्य है। तुम इतिहास में सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र के नाम से अमर रहोगे।’ भगवत कृपा से राजा हरिशचन्द्र का पुत्र जीवित हो गया। तीनों प्राणी चिरकाल तक सुख भोगकर अन्त में स्वर्ग को चले गए।
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