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कोरोना ने नर्सरी संचालकों को बनाया कर्जदार

A man is seen working in a flower nursery

लखनऊः कोरोना महामारी के प्रकोप से बडे़ पैमाने पर जनहानि हुई और तमाम व्यावसायियों को अर्श से फर्श पर लाकर खड़ा कर दिया है। जिस नर्सरी से एक माह में लाखों रूपये की कमाई की जाती थी, आज उसकी अर्थव्यवस्था इतनी खराब है कि उसे मुश्किल से पानी मिल पाता है। 2020-21 और 2021-22 में दो विश्व पर्यावरण दिवस मनाए जा चुके हैं। इन दोनों वर्षों में कोरोना की दहशत जबरदस्त थी। यही कारण है कि राजधानी की करीब 200 नर्सरियों में 12 माह में केवल 25 फीसदी पौधों की ही बिक्री हो सकी। नतीजा यह है कि लोगों का व्यवसाय चैपट हो गया और वह कर्जदार हो गए।

दरअसल, राजधानी में कई पुरानी कॉलोनियों को मॉडर्न तरीके से बसाया गया है। इन कॉलोनियों को ऐसे तरीके से विकसित किया गया था कि प्रकृति के प्रति स्नेह रखने वाले यहां बड़े पैमाने पर पौधे लगा सकें। इनमें राजाजीपुरम, इंदिरानगर, गोमतीनगर और विकासनगर की हरियाली आज भी देखने लायक है। जो नर्सरी संचालक यहां के लोगों को पौधे की सप्लाई करते हैं, वह इस बात के गवाह हैं कि हर साल अनुमानतः 67 हजार पौधे एक कॉलोनी में लगाए जाते हैं। यह आंकड़ा अगर चार कॉलोनी में देखा जाए तो इंदिरानगर, गोमतीनगर, विकासनगर और राजाजीपुरम में 2,68,000 पौधे सालाना यहां लगाए जाते हैं।

शहर में करीब 200 नर्सरी हैं। यह नर्सरी शहर के हर क्षेत्र में हैं। दुबग्गा में रामजी पांडेय और गोमतीनगर में अंकित मौर्या बताते हैं कि दिल की बात दिल में है। जगजाहिर होने से इस व्यवसाय को कहीं मदद नहीं मिलने वाली है। अंकित बताते हैं कि जो लोग नर्सरी के लिए जमीन किराए पर लेकर काम कर रहे हैं उन्हें केवल एक स्थान का 12 हजार रूपये महीना किराया देना पड़ रहा है। कोरोनाकाल से पहले हर माह करीब 01 लाख रूपये का टर्नओवर रहता था। इन दो सालों में गर्मी में ही कोरोना का प्रकोप रहा, इससे अधिक नुकसान हो गया। कारण यह है कि गर्मी में बिक्री भी कम होती है, कोरोना के चलते विकने वाले पौधे भी नहीं बिके। इससे व्यापार चैपट हो गया। पानी और खाद में कमी की जाती तो पौधे सूख जाते। नर्सरी संचालकों का कहना है कि शहर में बड़ी नर्सरियों में ज्यादातर कर्जदार हैं। इनमें वह लोग हैं, जिन्होंने व्यवसाय को तीन या चार साल के अंदर शुरू किया था।

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रास्ते में ही सड़ गए पौधे

पौधों को समय से धूप और पानी मिलना जरूरी होता है। जिन दिनों केरल और पुणे से पौधे लाने के लिए गाड़ियां लखनऊ से जा चुकी थीं, उन दिनों लॉकडाउन नहीं था। महामारी की रफ्तार तेज हो रही थी। छह दिन में वाहन को लखनऊ आना था, लेकिन तमाम बंदिशों के चलते ऐसा नहीं हो सका। पौधों में रास्ते में ही सड़न हो गई। कई जगह तो ट्रक चालकों को लॉकडाउन के डर से रास्ता बदलना पड़ा, इससे तमाम कीमती पेड़ टूट गए। इस नुकसान से गंजे के सिर पर ओले पड़ने जैसी हालत हो गयी। न पौधे बिक रहे हैं और न ही बर्बादी बचाई जा सकी। अब कर्ज का बोझ रातों की नींद उड़ा रहा है।