Featured संपादकीय

भाजपा, नया संसदीय मॉडल और संघ की विचारशक्ति

0a5d4b3613b30cf380bd49ae0ff064dea22012eb4bd51bd48612ebfcf210031c_1

41 वर्ष आयु हो गई है भारतीय जनता पार्टी की। मुंबई के पहले पार्टी अधिवेशन में अटल जी ने अध्यक्ष के रूप में कहा था कि "अंधियारा छंटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा।" आज भारत की संसदीय राजनीति में चारों तरफ कमल खिल रहा है। कभी बामन-बनियों और बाजार वालों (मतलब शहरी इलाके) की पार्टी रही भाजपा आज अखिल भारतीय प्रभाव के चरम पर है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के शोर में बीजेपी का स्थापना दिवस कुछ अहम सवालों के साथ विमर्श को आमंत्रित करता है।

सवाल यह कि क्या बीजेपी का अभ्युदय केवल एक चुनावी हार-जीत से जुड़ा घटनाक्रम है? हर दल के जीवन में उतार-चढ़ाव आते हैं इसलिए क्या बीजेपी का चरम भी समय के साथ उतार पर आ जायेगा? इस बुनियादी सवाल के ईमानदार विश्लेषण में एक साथ कई पहलू छिपे हैं बशर्ते संसदीय राजनीति के उन पहलुओं को पकड़ने की कोशिश की जाए जो स्वाभाविक शासक दल और उसके थिंक टैंक की कार्यनीति से सीधे जुड़े रहे हैं। बंगाल सहित सभी पांच राज्यों में भाजपा चुनाव हार भी जाये तब भी यह सुस्पष्ट है कि भारत एक नए संसदीय मॉडल की राह पकड़ चुका है और यह रास्ता है बहुसंख्यकवाद का। यानी बीजेपी ने शासन और राजनीति को महज 41 साल में एक नए मॉडल में परिवर्तित कर दिया है, जिसे 60 साल में कांग्रेस ने खड़ा किया था। बेशक दूर से यह मॉडल 2014 के बाद से ही नजर आता है लेकिन इसकी बुनियाद 95 साल पहले रखी जा चुकी थी जब एक कांग्रेसी डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार भारत के स्वत्व केंद्रित सामाजिकी को भारत के भविष्य के रूप में देख रहे थे। आरएसएस यानी संघ उस बुनियाद का सामाजिक, सांस्कृतिक नाम है जिसे आज के पॉलिटिकल पंडित मोदी-शाह की सोशल इंजीनियरिंग कहकर अपनी सतही समझ को अभिव्यक्त करते हैं।

असल में बीजेपी का राजनीतिक शिखर महज एक पड़ाव है उस सुदीर्घ परियोजना का जिसे संघ ने अपने सतत संघर्ष ,बलिदान और तपस्या से खड़ा किया है। सवाल यह है कि महज 7 साल से भी कम के दौर में गैर बीजेपीवाद की राष्ट्रीय मांग क्यों बेचारगी के साथ मुखर होने लगी, स्वाभाविक शासक परिवार के मुखिया अमेरिका से हस्तक्षेप तक की मांग पर उतर आए, जबकि गैर-कांग्रेसवाद को फलीभूत होने में 60 साल का समय लगा। मोदी-शाह के अक्स में इस राजनीतिक मांग को जब तक देखा जाता रहेगा यह न तो कभी बीजेपी के लिए चुनौती साबित होगा न निकट भविष्य में उसके चुनावी पराभव को सुनिश्चित करेगा, जैसा कि हालिया कांग्रेस का हुआ है। सच्चाई यह है कि बीजेपी एक दीर्धकालिक समाज परियोजना का पड़ाव भर है। भारत का भविष्य अब सेक्युलरिज्म या अल्पसंख्यकवाद से नहीं बहुसंख्यकवाद से ही निर्धारित होगा। इसलिए अगर निकट भविष्य में बीजेपी चुनावी शिकस्त भी खाती है तब भी यह परियोजना सफलतापूर्वक आगे बढ़ेगी।

पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण सब दूर ध्यान से देखा जाए तो सियासी महल के दुमहले मोदी-शाह से भयाक्रांत है। बीजेपी का यह राजनीतिक भय आखिर किसकी दम पर खड़ा हुआ है? बुद्धिजीवियों की सुनें तो सत्ता के कथित दुरुपयोग से, साम्प्रदायिक राजनीति और धनबल से। हकीकत यह है कि बीजेपी ने भारत की संसदीय राजनीति को 70 साल बाद सही अर्थों में समावेशी और समाजवादी बनाने का काम किया है। यह नया मॉडल बहुसंख्यक भावनाओं पर मजबूती से आकर खड़ा हो गया है। यह भी तथ्य है कि भारत के साथ रागात्मक रिश्ता संसदीय व्यवस्था में अगर किसी ने खड़ा किया तो वह बीजेपी ही है और इसका श्रेय जाता है उसकी मातृ संस्था संघ को। 60 साल तक अल्पसंख्यकवाद भारत की उदारमना बहुसंख्यक आबादी की छाती को मानो रौंदते हुए खड़ा रहा। समाजवाद और सामाजिक न्याय की अवधारणाओं को ध्यान से देखिए कैसे सिंडिकेट निर्मित हुए इन चुनावी अखाड़ों में।सैफई, पाटलिपुत्र जैसे तमाम समाजवादी और फैमिली सिंडिकेटस को बीजेपी ने केवल 2014 में आकर तोड़ दिया है, यह मानना भी बचकाना तर्क ही है। कल मोदी-शाह नहीं होंगे तब क्या कोई प्रधानमंत्री हिन्दू भावनाओं को दोयम बनाने की हिम्मत करेगा? क्या शांडिल्य गोत्री कोई ममता चंडीपाठ की जगह केवल कलमा से अपनी चुनावी वैतरणी पार कर सकेंगी? क्या बंगाल में अब कोई भी दल जयश्री राम के जयघोष करने वालों को जेल में बंद कराने की हिम्मत करेगा? क्या आगे कोई राजकुमार अपने कुर्ते के ऊपर से जनेऊ पहनकर खुद के दतात्रेय गोत्र को बांचने से बचेगा? क्या गारंटी है कि कोई दिग्विजय सिंह जैसा सेक्युलर चैम्पियन राममन्दिर के लिये चंदा नहीं देगा। सबरीमाला पर वाम और कांग्रेसी माफी की मुद्रा में नहीं होंगे और स्टालिन कबतक खुद को नास्तिक कह पायेंगे। इस विमर्श को गहराई से समझने की जरूरत है कि कैसे भारत की चुनावी राजनीति नए संस्करण में खुद को ढाल रही है। क्या यह सेक्युलरिज्म का बीजेपी मॉडल नहीं है जिसे संसदीय स्वीकार्यता मिल रही है।

सामाजिक न्याय और समाजवाद के उसके मॉडल को भी देखिये। गोकुल जाट, सुहैलदेव, कबीर से लेकर सबरी और मतुआ को लेकर मथुरा, बनारस से बंगाल तक एक नया ध्रुवीकरण बीजेपी के पक्ष में दिखाई देता है। मौर्या, कोइरी, कुर्मी, लोधी, लिंगायत, निषाद, मुसहर,जैसी बीसियों पिछड़ी, दलित जातियां बीजेपी की छतरी के नीचे खुद को राजनीतिक न्याय के नजदीक पा रही हैं। जबकि संविधान के होलसेल डीलर इस न्याय को केवल परिवारशाही की हदबंदी में बंधक बनाए रखें। इसका सीधा मतलब यही है कि माई और भूरा बाल जैसे समीकरण अब इतिहास के कूड़ेदान में जा चुके हैं और सैफई महोत्सव की समाजवादी रंगीनियत भी शायद ही अब लौटकर आ पाएं। इसे समाजीकरण की प्रक्रिया में आप भव्य हिन्दू परम्परा का निरूपण भी कह सकते हैं। एक दौर में देश ने अटलजी के स्थान पर देवेगौड़ा और गुजराल जैसे प्रधानमंत्री इसी हिन्दू राजनीति की प्रतिक्रिया में देखे थे। यानी कल जिस हिन्दूत्व ने बीजेपी को अलग-थलग किया था आज वही उसके उत्कर्ष का आधार बन गया है। तो फिर इसे बीजेपी की वैचारिकी पर भारत की बहुसंख्यक आबादी की मोहर नहीं माना जाना चाहिए।

पार्टी ने जिस नए मॉडल को सफलतापूर्वक लागू किया है उसमें शासन और राजनीति दोनों का व्यवस्थित ढांचा नजर आता है। बेरोजगारी, आर्थिक संकट के स्वीकार्य वातावरण के बावजूद अगर मोदी की विश्वसनीयता बरकरार है तो इसके पीछे वैचारिक अधिष्ठान का योगदान भी कम नहीं है। गरीबी हटाने के नारे भले खोखले साबित हुए हों लेकिन कश्मीर से 370, सीएए और राममंदिर जैसे मुद्दे पर पार्टी ने जिस तरीके से काम किया वह उसकी विश्वसनीयता को बढ़ाने वाला ही साबित हुआ है। चीन और पाकिस्तान के मुद्दे भी उस बड़ी आबादी को बीजेपी से निरन्तर जोड़ने में सफल है जिसे एक साफ्ट स्टेट के रूप में भारत की छवि नश्तर की तरह चुभती रही है। इंदिरा गांधी को जिन्होंने नहीं देखा उन्हें मोदी एक डायनेमिक पीएम ही नजर आते हैं और आज इस पीढ़ी की औसत आयु 36 साल है। दुनिया के सबसे युवा देश के लोग राहुल गांधी की अनमनी राजनीति को सिर्फ परिवार के नाम पर ढोने को तैयार नहीं हैं। जेपी, लोहिया,कांशीराम और कर्पूरी ठाकुर के नाम से खड़ी की गई वैकल्पिक विरासत भी इसलिए प्रायः खारिज नजर आती है क्योंकि यह विकल्प केवल कुछ परिवारों और जातियों के राजसी वैभव पर आकर खत्म हो गया। बीजेपी ने करीने से इस नवसामन्ती समाजवाद को अपने राजनीतिक कौशल से हटा लिया है।

मप्र, उप्र, असम, हरियाणा, गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में पार्टी की नई पीढ़ी को ध्यान से देखने की जरूरत है। यहां जिस नेतृत्व को विकसित किया गया है वह आम परिवार और उन जातियों को सत्ता एवं संगठन में भागीदारी देता है जो सँख्या बल के बावजूद राजनीतिक विमर्श और निर्णय से बाहर रहे हैं। यानी जाति की राजनीति को समावेशी जातीय मॉडल से भाजपा ने रिप्लेस कर दिया है। बंगाल और असम में पार्टी का जनाधार बामन, बनिये या ठाकुर नहीं बना रहे हैं बल्कि आदिवासी और दलितों ने खड़ा किया है। हिंदी पट्टी में आज पिछड़ी जातियां उसके झंडे के नीचे खड़ी हैं। यह नहीं भूलना चाहिये कि देश के प्रधानमंत्री भी एक पिछड़ी जाति से आते हैं।

द्विज के परकोटे में पिछड़ी और दलित जातियों को समायोजित करने का राजनीतिक कौशल 70 साल में बीजेपी से बेहतर कोई भी अन्य दल नहीं कर पाया है। नजीर के तौर पर मप्र में 16 साल से सत्ता चलाने का जिम्मा तीन ओबीसी मुख्यमंत्री के पास ही है। जाहिर है बीजेपी ने चुनावी राजनीति को एक प्रयोगधर्मिता पर खड़ा किया है और सतत सांगठनिक ताकत ने इसे सफलतापूर्वक लागू भी करा लिया। वैचारिकी पर खड़े संगठन के बल पर बीजेपी का चुनावी ढलान भी शायद ही कांग्रेस की तरह शून्यता पर कभी जा पाए क्योंकि यहां परिवारशाही नहीं वंचित, पिछड़े समूह पार्टी के नए ट्रस्टी बनते जा रहे हैं।

डॉ. अजय खेमरिया