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शहादत दिवस: चंबल के ‘भगत सिंह’, जिनके कारनामों पर आज भी गर्व करते हैं लोग

औरैयाः चंबल घाटी के भगत सिंह नाम से विख्यात क्रांतिकारी (Bhagat Singh of Chambal) महेश सिंह चौहान की शहादत को आज 75 साल पूरे हो गए हैं। चम्बल के पचनदा क्षेत्र के चकरनगर के निकट यमुना नदी के किनारे स्थित तेजपुर गांव में का जन्म 1923 में जन्मे डॉ. महेश सिंह चौहान ने प्रथम विश्व युद्ध में हिस्सा लेने से लेकर आजादी की जंग में शामिल होने तक कई ऐसे काम किये, जिससे वह चंबल घाटी के भगत सिंह (Bhagat Singh of Chambal) के नाम से मशहूर हो गए थे। अंग्रेजों से मिलकर कुछ जमीदारों ने धोखे से डॉ. महेश चौहान की निर्मम तरीके से हत्या कर दी थी। हत्या को लेकर इतना गुस्सा था कि लोगों ने आरोपी जमीदारों को पीट-पीट कर मार डाला था। तब से डॉ. महेश चौहान की हत्या के इस दिन को शहादत दिवस के रूप में मनाया जाता है।

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डॉ. महेश सिंह चौहान के पिता जसवंत सिंह प्रथम विश्वयु्द्ध के दौरान राजपूत रेजीमेंट में थे।चंबल क्षेत्र में नवयुवकों को पकड़ कर जबरन फौज में भर्ती किया जा रहा था। जसवंत सिंह 10वीं के छात्र थे। वे भी फौज में भर्ती हो गए। मोर्चे से लौट कर उन्होंने जिले में कांग्रेस की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान किया। महात्मा गांधीजी के कहने पर जसवंत सिंह भारतीय चरखा संघ से जुड़े थे। गांधीजी ने 1927 में भरथना और कंचौसी व इटावा में जनसभाओं को संबोधित किया था। इन सभाओं के अयोजन में उनकी खास भूमिका थी। वे सिविल नाफरमानी आंदोलन के दौरान गिफ्तार हुए।एक वर्ष का सश्रम कारावास और 300 रुपये अर्थदंड, न चुकाने पर तीन माह के और कारावास का दंड मिला था।

इस प्रकार महेश सिंह चौहान (Bhagat Singh of Chambal) को राजनीतिक चेतना विरासत में मिली थी।अगस्त क्रांति के समय वे महेबा में पढ़ रहे थे. स्कूली शिक्षा छोड़कर आजादी की जंग में शामिल हो गए। उनके नेतृत्व में छात्र-नौजवानों ने अमावता में अंग्रेजों की कोठी पर हमला करके उसे जलाया, फरार हो गए। घर का सामान कई बार कुर्क हुआ। उन्हें 10 माह बाद गिफ्तार किया जा सका।जेल में उनकी मुलाकात क्रांतिकारी सुदर्शन से हुई, जेल से छूटकर अलीगढ़ से वैद्य विशारद की परीक्षा पास की, फिर झांसी मेडिकल कॉलेज से बीएएमएस किया। जल्द ही वे जनता के डॉक्टर के रूप में विख्यात हो गए।

1946 में “आजाद हिंद सेना” के बंदियों की रिहाई के आंदोलन में अजीतमल औरैया में छात्र-युवा अंदोलन में भी महेश सिंह चौहान की अग्रणी भूमिका थी। वे गांव-गांव, खेत-खलिहानों में जाकर जनता को संगठित और हथियारबंद कर रहे थे।जनता की गोलबंदी रोकने के लिए सरकार ने धारा 144 लगा दी थी, इसके बावजूद, 9 फरवरी, 1947 को अयाना मंडल किसान सभा के आह्वान पर हजारों की संख्या में किसान जनसभा में एकजुट हुए।ब्रिटिश सरकार के पुलिसिए, रोशंगपुर रियासत के गुन्डे-कारिन्दे कुछ न कर सके। महेश सिंह के खिलाफ वारंट था परंतु उन्होंने जनसभा को संबोधित किया शहादत के पहले 28 से 30 मार्च, 1947 को मुरादगंज में विशाल किसान सम्मेलन हुआ था।

इसके बाद, जमींदारों ने अंग्रेजी शासन के साथ सांठगांठ करके धोखे से क्रांतिवीर महेश को सिहोली के बीहड़ में अकेला घेर करके 01 अप्रैल, 1947 को उनकी निर्मम हत्या कर दी।जनता क्रोध और प्रतिशोध में उमड़ पड़ी और रोशंगपुर में सामंती गढ़ ढह गया। बाद में बिलावा का अत्याचारी सामंत भी जनता के जुझारू जत्थे के हाथों मौत के दंड का भागी बना। डॉ. महेश सिंह चौहान को मारने वाले कई ज़मीदारों ने गुस्से में पीट-पीटकर मार डाला था।

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