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किसान पंचायत के बाद गरमाता अटकलों का बाजार

BKU (Arajnaitik) leader Rakesh Tikait addresses the farmers at Kisan Mahapanchayat

मुजफ्फरनगर में हुई किसान महापंचायत के बाद राजनीतिक अटकलों का बाजार तेज हो गया है। किसान महापंचायत के मंच पर चढ़ने का भले ही विपक्षी दलों को मौका न मिला हो लेकिन उम्मीदों की झाड़ पर तो वे चढ़ ही गए हैं। विपक्ष की प्रतिक्रियाओं से तो यही लगता है कि इस महापंचायत के बाद उनके दिल में खुशी के लड्डू फूट रहे हैं और उन्हें लगने लगा है कि भाजपा तो अब गई। अखिलेश यादव, मायावती, राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा के ट्वीट से तो कमोबेश ऐसा ही ध्वनित होता है। बसपा प्रमुख मायावती कह रही हैं कि भाजपा की जमीन दरक रही है और सपा प्रमुख अखिलेश यादव कह रहे हैं कि किसान महापंचायत भाजपा की दमनकारी नीतियों के खिलाफ जनलहर है। इस तरह की राजनीतिक प्रतिक्रियाएं आती रहती हैं लेकिन उनके अपने मतलब होते हैं। यह और बात है कि उनका सधना और न सधना वक्त के गर्भ में होता है।

भाकियू नेता राकेश टिकैत को लग रहा था कि सरकार आंदोलन में आनेवालों को रोकेगी लेकिन सरकार के स्तर पर ऐसा कुछ हुआ नहीं। उन्हें भारी भीड़ तो दिखी लेकिन इस बात का आभास नहीं हुआ कि इससे सरकार की सेहत पर कोई असर भी पड़ा है। उन्होंने देश बचाने के लिए और कई बड़े आंदोलन करने की चेतावनी देकर इस बात का संकेत दे दिया है कि केवल एक महापंचायत से बात बनने वाली नहीं है। किसान महापंचायत के मंच से इस बात की मुनादी भी की गई है कि उसे उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड में भाजपा को सत्ता से बाहर करना है। केंद्र में 2024 में नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं बनने देनी है। कहने को तो यह पंचायत अराजनीतिक किसानों की थी लेकिन इसके मंच से जो भी मुद्दे उठाए गए, वे पूरी तरह राजनीतिक थे।

उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में कुछ ही महीनों बाद विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में इस महापंचायत के आयोजन की प्रासंगिकता पर तो सवाल उठते ही हैं। 27 सितंबर को किसान संगठनों की ओर से भारत बंद का आयोजन किया जा रहा है। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने इस महापंचायत को लेकर जो कुछ भी कहा है, उसके अपने अपने राजनीतिक निहितार्थ है। प्रियंका गांधी वाड्रा ने कहा है कि किसानों की हुंकार के सामने किसी भी सत्ता का अहंकार नहीं चलता। रणदीप सुरजेवाला तो उससे भी आगे की बात कर रहे हैं किसान का खेत-खलिहान चुराने वाले देशद्रोही हैं। वे शायद यह भूल गए हैं कि हरियाणा की कांग्रेस सरकार ने ही राबर्ट वाड्रा को किसानों की भूमि औने-पौने दाम में व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए दी थी।

किसान महापंचायत से विपक्ष को उम्मीद थी कि मंच से उनके लिए कुछ तो इशारा होगा ही लेकिन जिस तरह संसद में अपने लोगों को भेजने का संकल्प जाहिर किया गया, उससे विपक्ष भी परेशान है। वह समझ नहीं पा रहा है कि किसान संगठन दरअसल चाहते क्या हैं ? क्या वे खुद अपने बैनर तले चुनाव में उतरेंगे और यदि ऐसा नहीं करते हैं तो किस राजनीतिक दल के साथ जाना चाहेंगे। किसान संगठन भाजपा के साथ तो नहीं जा रहे हैं, यह बात तो विपक्ष की समझ में आ गई है। भाजपा का जरा-सा भी नुकसान उनके लिए असीम सुख का हेतु बनता रहा है और अब जब किसान आंदोलन से जुड़े नेता हर विधानसभा क्षेत्र में भाजपा को घेरने की बात कर रहे हैं तो विपक्ष की बांछें खिलना स्वाभाविक भी है।

वैसे भी अभीतक का तो इतिहास यही रहा है कि मुजफ्फरनगर के जीआईसी मैदान में जिस किसी भी राजनीतिक दल के खिलाफ पंचायत हुई है, वह चुनाव हार गई लेकिन भाजपा के साथ भी ऐसा ही होगा, यह कहना जरा मुश्किल ही है। इसकी वजह यह है कि केंद्र की मोदी और उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने किसानों के हित में जितने भी काम किए हैं, उतना काम अभी तक किसी भी दल नहीं है। उनके किसी भी सरकारी बजट में किसान उपेक्षित नहीं रहा है और जिस समय किसान सम्मेलन हो रहा था, उसी दौरान उत्तर प्रदेश के 18 शहरों में भाजपा का प्रबुद्ध सम्मेलन हो रहा था। भाजपा नेता, उसके एक-एक कार्यकर्ता किसानों को केंद्र और यूपी सरकार द्वारा उनके हित में किए गए कार्यों की जानकारी दे रहे हैं। मतलब भाजपा पहले ही डैमेज कंट्रोल को अहमियत दे रही है।

जैसा कि संकेत मिल रहा है कि इसबार किसान नेता पंचायती सरकार बनाने के लिए अपने लोगों को चुनाव मैदान में उतारेंगे तो इससे भाजपा को जहां लाभ होगा, वहीं विपक्ष के पैरों के नीचे की जमीन जरूर सरक जाएगी। इस मंच से पुलिसकर्मियों, सरकारी कर्मचारियों और बेरोजगार युवाओं को भी भड़काने की कोशिश की गई। यह बताने और जताने की कोशिश की गई कि निजीकरण के खतरे क्या हैं ? बड़े मॉल खुलेंगे तो रेहड़ी-ठेले वाले कहां जाएंगे, जैसे सवाल उठाए गए। इन आंदोलनकारी नेताओं को इतना तो पता है कि देश का 95 प्रतिशत किसान छोटी जोत का है। वह मंडी अपने अनाज नहीं ले जाता। सारा विरोध पांच प्रतिशत से भी कम बड़े किसानों का है। सरकारी योजनाओं का सर्वाधिक लाभ भी यही लेते रहे हैं। सरकार ने छोटे और मंझोले किसानों की दशा-दिशा बदलने को लेकर काम शुरू कर दिया है। वर्षों से लंबित पड़ी सिंचाई योजनाएं पूरी की हैं। कुछ जल्द ही पूरी होने वाली हैं।

किसान महापंचायत में पहुंचे नेताओं ने देश और संविधान दोनों को बचाने का संकल्प व्यक्त किया है। सवाल उठता है कि क्या वाकई देश और संविधान को खतरा है। नहीं तो गुमराह करने वाले तत्वों पर सरकार कार्रवाई क्यों नहीं कर रही है ? सरकार दरअसल, अपने काम से आम जनमानस में जगह बनाना चाहती है, उसे पता है कि लोग खुद-ब-खुद समझ जाएंगे कि उनके हित में क्या उचित है और क्या अनुचित ? लेकिन उसे यह भी समझना होगा कि कि जिस तरह किसी अध्याय को पचास बार पढ़ने पर वह कंठस्थ हो जाता है, उसी तरह एक झूठ अगर कई बार कहा जाए और अलग-अलग व्यक्तियों और उसके समूहों द्वारा कहा जाए तो वह सच जितना ही असरकारी होने लगता है।

किसानों की इस महापंचायत, उसमें उठे मुद्दों और भविष्य की रणनीतियों पर सरकार को गौर जरूर करना चाहिए क्योंकि चूहे सत्ता भवन की दीवार कमजोर करने का हरसंभव यत्न करते रहते हैं। किसान पंचायत के मंच पर कुछ विकास विरोधी ताकतों की भी उपस्थिति रही। ऐसे में सरकार को बेहद सावधान रहकर अपनी विकास गतिविधियों को भी आगे बढ़ाना है और सांप्रदायिक सौहार्द के झूठे नारे लगाने व देश-प्रदेश को कमजोर करने वाली ताकतों को मुंहतोड़ जवाब भी देना है।

किसान संघों का दावा है कि वे 2024 तक दिल्ली बार्डर पर आंदोलन करते रहेंगे। ऐसे में सरकार को सर्वोच्च न्यायालय के उस आदेश पर गौर करना चाहिए जिसमें कहा गया है कि किसान आंदोलन कर सकते हैं लेकिन सड़क नहीं रोक सकते। तीनों कृषि कानूनों पर सरकार अनेक बार अपना पक्ष रख चुकी है लेकिन किसान नेता यह बताने को तैयार नहीं हैं कि उसमें कमी क्या है, इसके बाद भी वे आंदोलन करना चाहें तो करें लेकिन इससे इस देश की जनता को परेशानी नहीं होनी चाहिए, इस बात का भी ख्याल रखा जाना चाहिए।

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वैसे भाजपा ने हमेशा किसानों की बात खुले मन से सुनने का प्रयास किया है और एकबार फिर भाजपा सांसद वरुण गांधी किसानों की बात सुनने की बात कह रहे हैं तो उनकी अपील को भी इसी अर्थ में लिया जाना चाहिए कि भाजपा किसान विरोधी नहीं है। किसान नेता पंचायत और बड़े आंदोलनों के जरिए मोदी और योगी सरकार को कितना नुकसान पहुंचा पाएंगे, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन विपक्ष को वह थोड़ी खुशी जरूर दे रहे हैं, इस बात को नकारा नहीं जा सकता।

सियाराम पांडेय 'शांत'