अचला सप्तमी व्रत-कथा और व्रत-विधि

अचला सप्तमी पुराणों में रथ, सूर्य, भानु, अर्क, महती तथा पुत्र सप्तमी आदि अनेक नामों से विख्यात है और अनेक पुराणों में उन-उन नामों से अलग-अलग विधियां निर्दिष्ट हैं, जिनके पालन से सभी अभिलाषाएं पूरी होती है। यहां भविष्य पुराण में निर्दिष्ट अचला सप्तमी व्रत का माहात्म्य और विधान संक्षेप में दिया जा रहा है
एक बार राजा युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा- भगवन्! आपने सभी उत्तम फलों को देने वाले ‘माघस्नान‘ का विधान बताया था, परन्तु जो प्रातः काल स्नान करने में समर्थ न हो वह क्या करे ? स्त्रियां अति सुकुमारी होती हैं, वे किस प्रकार से माघस्नान का कष्ट सहन कर सकती हैं ? इसलिए आप कोई ऐसा उपाय बतायें कि थोड़े से परिश्रम के द्वारा नारियों को रूप, सौभाग्य, संतान और अनन्त पुण्य की प्राप्ति हो । भगवान श्रीकृष्ण इसलिए ऐसा उपाय बताया कि थाड़े परिश्रम के द्वारा नारियों को रूप, सौभाग्य, संतान और अनन्त पुण्य की प्राप्ति हो ।

भगवान श्रीकृष्ण बोले- महाराज ! मैं अचला सप्तमी व्रत का विधा बतलाता हूं, जिसे करने से सब उत्तम फल प्राप्त हो जाते हैं। इस सम्बन्ध में आप एक कथा सुनें मगध देश में इन्दुमती नाम की एक अति रूपवत वेश्या रहती थी। एक दिन वह प्रातःकाल बैठी-बैट संसार की नश्वरता का इस प्रकार चिन्तन करने लगी- ‘देखो ! यह विषयरूपी संसार-सागर कैसा भयंकर है, जिसमें डूबते हुए भी किसी प्रकार पार उतर नहीं पाते। ब्रह्माजी के द्वारा निर्मित यह प्राण समुदाय अपने किये गये कर्मरूपी ईधन एवं कालरूपी अग्नि से दग्ध कर दिया जाता है। प्राणियों के जो धर्म, अर्थ, काम से रहित दिन व्यतीत होते है- फिर वे कहां वापस आते हैं, जिस दिन स्नान, दान, तप, व्रत, हवन, स्वाध्याय, पितृतर्पण आदि सत्कर्म नहीं किया जाता, वह दिन व्यर्थ होता है। पुत्र, स्त्री, घर, क्षेत्र तथा धन आदि की चिन्ता में मनुष्य की सारी आयु बीत जाती है और मृत्यु आकर दबोच लेती है।

इस प्रकार कुछ उद्विग्न होकर सोचती- विचारती हुई वह वेश्या महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में गयी और उन्हें प्रणाम कर हाथ जोड़कर कहले लगी- ‘भगवन् मैने न तो कभी कोई दान किया और न जप, तप, व्रत, उपवास आदि सत्कर्मों का अनुष्ठान ही किया तथा न शिव, विष्णु आदि किन्हीं देवताओं की आराधना ही की। अब मैं इस भयकर संसार से भयभीत होकर आपकी शरण में आयी हूँ, आप मुझे कोई ऐसा व्रत बतलायें जिससे मेरा उद्धार हो जाये।’ वशिष्ठ जी बोले- वरानन् ! तुम माघमास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को स्नान करो, जिससे रूप, सौभाग्य और सद्गति आदि सभी फल प्राप्त होते हैं। षष्ठी के दिन एक बार भोजन करके सप्तमी को प्रातःकाल ही ऐसे नदी तट अथवा जलाशय पर जाकर दीपदान और स्नान करो, जिस जल को किसी ने स्नान कर हिलाया न हो, क्योंकि जल मल को प्रक्षालित कर देता है। बाद में यथाशक्ति दान भी करो। इससे तुम्हारा कल्याण होगा। वशिष्ठ जी का ऐसा वचन सुनकर इन्दुमती अपने घर वापस लौट आयी और उनके द्वारा बतायी गयी विधि के अनुसार उसने स्नान, ध्यान, दान आदि कर्मों को सम्पन्न किया। सप्तमी के दान व स्नान के प्रभाव से बहुत 1 दिनों तक सांसारिक सुखों का उपभोग करती हुई वह देहत्याग के पश्चात् देवराज इन्द्र की सभी अप्सराओं में प्रधान नायिका के पद पर अधिष्ठित हुई। यह अचला सप्तमी सम्पूर्ण पापों का प्रशमन करने वाली तथा सुख-सौभाग्य की वृद्धि करने वाली है।


राजा युधिष्ठिर ने पूछा- भगवन् ! अचला सप्तमी व्रत का माहात्म्य तो आपने बतलाया, कृपाकर अब स्नान-विधान भी बतलायें। भगवान श्रीकृष्ण बोले- महाराज ! षष्ठी के दिन एक समय भोजन करके सूर्यनारायण का पूजन करे। यथासम्भव सप्तमी को प्रातःकाल ही उठकर नदी या सरोवर पर जाकर बहुत सबेरे ही स्नान करने की चेष्टा करें। सुवर्ण, चांदी अथवा ताम्र के पात्र में कुसुम्भ की रंगी हुई बत्ती और तिल डालकर दीपक प्रज्जवलित करे। उस दीपक को सिर पर रखकर हृदय में भगवान् सूर्य का इस प्रकार ध्यान करे

नमस्ते रूद्ररूपाय रसानाम्पतये नमः । वरूणाय नमस्तेऽस्तु हरिवास नमोऽस्तु ते ।।
यावज्जन्म कृतं पापं मया जन्मसु सप्तसु। रोगं च शोकं च माकरी हन्तु सप्तमी।।
जननी सर्वभूतानां सप्तमी सप्तसप्तिके। सर्वव्याधिहरे देवि नमस्ते रविमण्डले।।

तदन्तर दीप को जल के ऊपर तैरा दे, फिर स्नान कर देवताओं और पितरों का तर्पण करें और चन्दन से पृथ्वी पर अष्टदल कमल बनायें। उस कमल के मध्य में शिव-पार्वती की स्थापना कर पूजा करें और पूर्वादि आठ दलों में क्रम से भानु, रवि, विवस्नवान्, भास्कर, सविता, अर्क, सहस्त्रीकरण तथा सर्वात्मा का पूजन करें।

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इस प्रकार पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य तथा वस्त्र आदि उपचारों से विधिपूर्वक भगवान् सूर्य की पूजा कर- ‘स्वस्थानं गम्यताम्’- यह कहकर विसर्जित कर दे। बाद में ताम्र अथवा मिट्टी के पात्र में गुड़ और घृत सहित तिल चूर्ण तथ सुवर्ण का ताल पत्राकार एक कान का आभूषण बनाकर पात्र में रख दें। अनन्तर रक्त वस्त्र से उसे ढ़ककर पुष्प-धूपादि से पूजन करें और वह पात्र दुर्भाग्य तथा दुःखों के विनाश की कामना से इस दिन ब्राह्मण को दान दें। अनन्तर- -‘सुपुत्रपशुभृत्याय मेऽर्कोऽयं प्रीयताम्‘ पुत्र, पशु, भृत्य समन्वित मेरे ऊपर भगवान सूर्य प्रसन्न हो जायें-ऐसी प्रार्थना करें। फिर गुरु को वस्त्र, तिल, गो और दक्षिणा देकर तथा शक्ति के अनुसार अन्य ब्राह्मणों को भोजन कराकर व्रत समाप्त करें। जो पुरूष इस विधि से अचला सप्तमी को स्नान व दान करता है, उसे सम्पूर्ण माघ स्नान का फल प्राप्त होता है। व्रत के रूप में इस दिन नमकरहित एक समय का एकान्न का भोजन अथवा फलाहार करने का विधान है। यह मान्यता है कि अचला सप्तमी का व्रत करने वाले को वर्ष भर रविवार व्रत करने का पुण्य प्राप्त हो जाता है।

लोकेंद्र चतुर्वेदी ज्योतिर्विद

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