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उत्कट देशानुरागी और दुर्धर्ष स्वतंत्रता-सेनानी !

आज देश-सेवा के नाम पर राजनीति में दम-खम आजमाने वाले हर तरह की सौदेबाजी करने पर उतारू हैं। उन्हें सत्ता चाहिए क्योंकि सत्ता से इस लोक में सब सधता दिखता है। अनेक जन सेवक हमारे बीच हैं जो जीवन में कभी बड़े कष्ट और संघर्ष के बीच जिए और एक साधारण जन की तरह कष्ट सहा पर सत्ता का स्वाद पाते ही काया-पलट होता गया। अब वे करोड़ों और शायद घोषित-अघोषित अरबों रुपये के स्वामी बन बैठे हैं। लोकैषणा कब वितैषणा में परिवर्तित हो गई पता ही नहीं चला। उसके बाद समाज और जन की भावना सिमटती गई और परिवार ही सीमा बनता गया। शर्म हया छोड़ बेटा-बेटी, नाती-पोते, भाई-भतीजे, बंधु-बांधव और जाति-बिरादर तक पहुँच कर उनका देश और समाज का दायरा सिमटता गया।

इस भारत-भूमि में उत्तरोत्तर बड़े प्रयोजन के लिए छोटे प्रयोजन या हित का त्याग करने की व्यवस्था थी। कुल के लिए निजी सुख, गाँव के लिए कुल, जनपद के लिए गाँव और देश के लिए सब कुछ न्योछावर करने की परम्परा थी। जब देश परतंत्र था तब राजनीति करने वाले को अपने प्राण तक देने के लिए तैयार रहना पड़ता था और कइयों को देना भी पड़ा था। इसके लिए कोई विषाद न होता था। देश के साथ संलग्नता का आधार मातृभूमि से निर्व्याज भावात्मक स्नेह होता था न कि लेन-देन का कोई अनुबंध। बिना शर्त वाले इस प्यार का बंधन क्या-क्या करा सकता है इसकी एक अनोखी मिसाल नेताजी सुभाष चन्द्र बोस हैं। उनके लिए देश की स्वाधीनता के लक्ष्य के आगे सब कुछ छोटा पड़ता गया और उसकी राह में आने वाली हर मुश्किल को पार किया, बिना इसकी परवाह के कि उसकी कीमत क्या है और क्या-क्या खोना पड़ सकता है।

आज से सवा सौ साल पहले ओडिशा के कटक में एक संभ्रांत वकील के भरे-पूरे परिवार में जन्मे और पले-बढे सुभाष बाबू एक मेधावी छात्र थे और कलकत्ता विश्वविद्यालय से दर्शन में स्नातक हुए। अध्ययन काल में कुछ उद्धत भी थे और गुलाम भारत की स्वतंत्रता का स्वप्न पालते हुए युवावस्था में प्रवेश किया। स्वामी विवेकानंद के विचारों से वे विशेष रूप से प्रभावित थे। फिर परिवार की आकांक्षाओं को आकार देते हुए 1920 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय इंग्लैण्ड से पढ़ाई की और वहीं आईसीएस परीक्षा ससम्मान पास की। वे इसमें चौथे स्थान पर थे पर प्रशिक्षण के दौरान ही अमृतसर में जलियांवाला बाग नरसंहार से इतने विचलित और व्यथित हुए कि प्रशिक्षण को बीच में ही छोड़ भारत लौट आए और जीवन की दिशा ही बदल गई।

सबकुछ छोड़ कर उनके सामने एक ही ध्येय था कि देश को किस तरह अंग्रेजों से मुक्त करा कर स्वाधीन किया जाय। इसके लिए सर्वस्व लुटा देने को तैयार वह इस मुहिम में जो जुटे सो इसी के हो गए। उनके भाई शरतचन्द्र बोस, जो पेशे से वकील थे, सुभाष बाबू को हर तरह से समर्थन देते रहे। इंग्लैण्ड से लौटकर जब वे भारत पहुँचे तो यहाँ के राजनीतिक परिदृश्य में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गतिविधियों ने आकर्षित किया और वे इससे जुड़े। महात्मा गांधी के विचारों, नीतियों और उनके अहिंसा और असहयोग के विचार से वे सहमत और प्रभावित थे। गांधीजी के सुझाव पर देशबंधु चित्तरंजन दास के साथ मिलकर राजनीति के क्षेत्र में काम शुरू किया।

1924 में कलकत्ता नगर कारपोरेशन के मुख्य कार्यकारी भी बने। उस दौरान सीआर दास वहां के मेयर थे। उनकी देशभक्ति को अंग्रेजी सरकार ने खतरनाक समझा और देश निकाला का आदेश दिया और बर्मा भेज दिया। वहां से वापस आने पर उनकी राजनैतिक गतिविधियाँ और प्रखर हुईं। वे बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष बने। कुछ समय बाद सुभाषचन्द्र बोस और जवाहर लाल नेहरू कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री बने। 1928 में नेता जी और नेहरू दोनों ने भारत के लिए डोमिनियन राज्य के दर्जा देने के प्रस्ताव का विरोध किया और पूर्ण स्वराज्य की आवाज बुलंद की। स्वाधीनता से कम कुछ भी उन्हें स्वीकार्य न था। उन्होंने इंडिपेडेंस लीग बनाई। बंगाल वालंटियर्स समूह बनाया जो छिपकर अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध कार्रवाई करता था।

सुभाष बाबू जेल में रहते हुए कलकत्ता के मेयर बने। 1930 के असहयोग आन्दोलन में उन्हें जेल हुई। 1931 में जेल से बाहर आए। गांधी-इरविन पैक्ट का विरोध किया। वे भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी को लेकर भी बड़े व्यथित थे। अंग्रेज सरकार ने उनको गिरफ्तार किया और एक साल बाद बीमारी के कारण जेल से छूटे। फिर वे वे यूरोप गए और सांस्कृतिक-राजनीतिक सम्बन्ध विस्तृत करने के लिए विभिन्न यूरोपीय राजधानियों में केंद्र खोले। ‘इन्डियन स्ट्रगिल’ नामक उनकी एक पुस्तक भी आई जिसमें भारत की स्वाधीनता की लड़ाई का परिचय और चुनौतियों को बताया गया था। 1936 में वे यूरोप से लौटे और उन्हें फिर गिरफ्तार किया गया।

1937 के आम चुनाव में कांग्रेस जीती और उसके हरिपुर अधिवेशन में सुभाष बाबू को अध्यक्ष चुना गया। अध्यक्ष के रूप में भारत के बहुमुखी उत्थान की योजना पर बल दिया और व्यापक औद्योगिकीकरण की पहल का आह्वान किया। अगले राष्ट्रीय अधिवेशन में जो त्रिपुरी में 1939 में हुआ था उनको पट्टाभिसीतारमैया के विरुद्ध अध्यक्ष का चुनाव लड़ना पड़ा था, जिनको गांधी का समर्थन प्राप्त था। उनकी जीत हुई और अध्यक्ष बने पर गांधी जी की इच्छा कुछ और थी और कार्यसमिति ने इस्तीफा दे दिया।

द्वितीय विश्वयुद्ध की छाया में सुभाष बाबू ने प्रस्ताव लाया कि छह महीने में अंग्रेज सरकार भारत को भारतीयों के हवाले करे अन्यथा उसके खिलाफ विद्रोह होगा। इस विचार का विरोध हुआ क्योंकि गांधी जी का समर्थन नहीं था और इस परिस्थिति में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। उनको लगा कि धूर्त अंग्रेजों से मुक्ति के लिए कड़ाई से लड़ना होगा और इस उद्देश्य से देश ‘फारवर्ड ब्लाक’ बनाया।

सुभाष बाबू समाजवादी दृष्टि के थे। भारतीय संसाधनों के सहारे जन आन्दोलन शुरू किया जिसे समर्थन भी मिला। उन्होंने पूरे भारत का दौरा किया। अगस्त 1939 को अंग्रेजी में साप्ताहिक ‘फारवर्ड ब्लाक’ समाचार पत्र निकाला और जून 1940 तक प्रकाशित किया। इस समाचार पत्र में वे स्वाधीन भारत की चिंताओं को लेकर अपने विचार व्यक्त करते रहे। देश में सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण और पूर्ण स्वराज्य का स्वर मुखरित करते रहे उनके शब्दों में ‘आज भारत के लोग न सिर्फ भारत की स्वाधीनता का स्वप्न देखते हैं, अपितु ऐसा भारत राष्ट्र चाहते हैं जो न्याय, समानता और नई सामाजिक व्यवस्था पर आधृत हो।’ इस समाचार पत्र में देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोग लिखते थे। बीस पृष्ठों के इस साप्ताहिक में राजनीति के साथ साहित्य, कला, उद्योग, विज्ञान, फिल्म आदि से जुड़े विषयों पर भी सामग्री रहती थी और अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर क्या कुछ हो रहा है उसका भी परिचय होता था। महात्मा गांधी के प्रति उनके मन में सदैव आदर बना रहा और यह अनेक लेखों में व्यक्त हुआ है।

सुभाष बाबू सरकारी आदेश के तहत घर में नजरबन्द किए गए पर देश की स्वाधीनता के लिए व्याकुल और आतुर वे अंग्रेजी सरकार के अमले को धता बताते हुए 26 जनवरी 1941 को देश की मुक्ति के लिए अंतरराष्ट्रीय पहल के लिए निकल पड़े। यह देश के एक सच्चे सिपाही का जोखिम और अनिश्चय भरा बड़ा महत्वाकांक्षी कदम था। वे छिपते-छिपाते अफगानिस्तान होते हुए मास्को पहुंचे और समर्थन पाने की कोशिश की पर बात नहीं बनी। फिर अप्रैल में जर्मनी पहुंचे और जर्मनी और जापान का समर्थन पाने का यत्न किया और सफलता भी पाई। इन्डियन इन्डिपेंडेंस लीग को पुष्ट किया और जर्मनी के सहयोग से फ्री इण्डिया सेंटर स्थापित किया।

जनवरी 1942 से रडियो बर्लिन जर्मन समर्थित आजाद हिन्द रेडियो से अंग्रेजी, हिन्दी, बाग्ला, तमिल, तेलुगु, गुजराती और पश्तो में रेडियो ब्राडकास्ट शुरू हुआ। स्पेशल ब्यूरो फार इंडिया बना। भारतीय युद्ध बंदी जो यूरोप में विभिन्न स्थानों पर उनको लेकर सेना बनी जिसमें हिन्दू, मुस्लिम और सिख सबको मिलाकर इकाइयां बनीं- तीन बटालियन हर एक में चार कम्पनी। 1941 में रेडियो जर्मनी से ही सुभाष बाबू ने भारतीयों के नाम अपना प्रसिद्ध सन्देश दिया था ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’

जर्मनी में आस्ट्रियाई मूल की एमिली शेंकेल नामक महिला से विवाह हुआ और नवम्बर 1942 बिटिया अनीता का जन्म हुआ। कुल सात वर्ष के दाम्पत्य में तीन वर्ष साथ-साथ रहे। अनीता फाफ इस समय अर्थशास्त्र की प्राध्यापिका हैं। अनीता चार महीने की थी जब सुभाष बाबू को सबकुछ छोड़ एक बड़े मिशन पर निकलना पड़ा। दक्षिण पूर्व एशिया पर जापानी आक्रमण के एक साल बाद वह जर्मन और जापानी पनडुब्बियों और हवाई जहाज से सफर करते हुए मई 1943 में टोकियो पहुंचे और पूर्वी एशिया में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कमान संभाली। इन्डियन नेशल आर्मी आई बनी। पूर्व एशिया में जापानी समर्थन से कामचलाऊ भारत की सरकार भी गठित की (जिसे सात देशों की मान्यता भी मिली थी!)। फिर रंगून और जुलाई 1943 में सिंगापुर पहुंचे।

स्वतंत्रता आन्दोलन की बागडोर रास बिहारी बोस से संभाली। आजाद हिन्द फौज स्थापित की और सबके प्यारे नेता जी हुए। भारत की ओर कूच किए, अंडमान निकोबार को स्वतन्त्र कराया। 1944 जनवरी में रंगून में मुख्यालय बना। बर्मा सीमा पार कर भारत भूमि पर मार्च में कोहिमा और इम्फाल की ओर आगे बढ़े। छह जुलाई 1944 के ऐतिहासिक रेडियो प्रसारण में नेता जी ने अपना मंतव्य व्यक्त किया करते हुए कहा था “जब तक आखिरी ब्रिटिश भारत से बाहर नहीं फेंक दिया जाता और जब तक नई दिल्ली में वायसराय हाउस पर हमारा तिरंगा शान से नहीं लहराता, यह लड़ाई जारी रहेगी। हमारे राष्ट्रपिता, भारत की आजादी की इस पवित्र लड़ाई में हम आपके आशीर्वाद और शुभकामनाओं की कामना कर रहे हैं।“ शौर्य और अदम्य पराक्रम की यह गाथा के साथ और रोमांचक कदम था जिसकी वास्तविकता मिथकीय कथा सरीखी लगती है।

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पर नियति को कुछ और ही मंजूर था। भारतीय सेना जापानी सेना के हवाई समर्थन के अभाव में हार गई। आजाद हिन्द फौज का अस्तित्व जापान की हार के साथ काल कवलित हो गया। अगस्त 1945 में जब जापान ने समर्पण कर दिया था। बदलते घटना क्रम के बीच खबर आई कि ताइपेयी ताइवान में वायु-दुर्घटना में 18 अगस्त 1945 को इस दुर्दम्य स्वतंत्रता सेनानी की इहलीला शांत हुई। यद्यपि बहुतों को इस पर विश्वास नहीं हुआ और उनके बचे होने की कहानियां हवा में तैरती रहीं।

पर इतना तो सबको लगता है कि स्वतंत्रता के धर्मयुद्ध में देश की स्वाधीनता के विराट प्रयोजन के लिए ‘इदं न मम !’ कहकर नेताजी एक-एक कर सबकुछ समर्पित करते गए। वे अपने लक्ष्य के साथ मन, वचन और कर्म हर तरह एकाकार थे और अपनी कल्पना को आकार देते रहे। वे सही अर्थों में नेता थे जो सबको आगे ले चलने के लिए उद्यत थे और नि:स्पृह रूप से खुद चलकर राह दिखाते थे। उनका अपना कुछ न था पर वे समूचे भारत के थे।

गिरीश्वर मिश्र