भारतीय सनातन धर्म में बिल्ववृक्ष की विशेष महिमा बताई गई है। इसको देव वृक्ष की संज्ञा प्राप्त है। इस वृक्ष को श्रीफल वृक्ष भी कहते हैं। यह भगवान शंकर को अत्यंत प्रिय वृक्ष है एवं उनकी प्रसन्नता प्राप्त कराने वाला वृक्ष है। बिल्व वृक्ष के बिल्वपत्र से भगवान शंकर की प्रसन्नता हेतु पूजा-अर्चना की जाती है। वृहद् धर्म पुराण के अनुसार बिल्ववृक्ष की महिमा बताते हुए देवी तथा शंकर के संवाद का वर्णन किया गया है। पूर्व काल में देवी लक्ष्मी के द्वारा भगवान शंकर की पूजा अर्चना का व्रत लिया गया था। देवी लक्ष्मी प्रतिदिन एक हजार कमल पुष्प भगवान शंकर को अर्पित कर पूजा किया करती थीं। एक समय प्रभु शंकर द्वारा परीक्षा के कारण देवी लक्ष्मी के कमल पुष्पों में से दो कमल कम हो गए।
दो कमल पुष्पों के कम होने से देवी लक्ष्मी को बड़ा क्षोभ हुआ, उन्होंने अपने शरीर के अंग को काटकर भगवान शंकर पर अर्पित कर दिया था। इससे उनकी शिव भक्ति से प्रसन्न हो कर भगवान शंकर ने उनके कटे अंग को पुनः स्वस्थ कर दिया एवं वरदान प्रदान किया कि तुमने जो अंग काटकर मेरे स्वर्णिम लिंग पर रखा है, वह पृथ्वी पर तुम्हारी भक्ति का मूर्त स्वरूप ‘श्रीफल’ नामक एक पवित्र वृक्ष उत्पन्न हो कर धरती पर तब तक रहेगा, जब तक यहां सूर्य चंद्र की स्थिति रहेगी। हे लक्ष्मी! यह वृक्ष मेरे लिए परम प्रीतिजनक है तथा उससे मेरी पूजा होगी। इसमें तनिक संदेह नहीं है, जैसे त्रिपुंड तथा गंगाजल मुझे अत्यंत प्रिय है, तदनरूप श्रीफल (विल्ववृक्ष) वृक्ष का त्रिपत्र भी मुझे अत्यन्त प्रिय होगा।
यह श्रीफल वृक्ष वैशाख मास के शुक्लपक्ष में उत्पन्न हुआ था। उसके उत्पन्न होने पर भगवान ब्रम्हा, नारायण तथा इंद्रादि देवता तथा सभी देवपत्नीगण वहां आए तथा त्रिपत्रयुक्त अपने तेज से दैदीप्यमान शिव रूपी इस वृक्ष का उन सभी ने दर्शन प्राप्त किया। दर्शन करके सभी इसे प्रणाम करके तथा उसमें जलसिंचन करते हुए अत्यन्त सुखपूर्वक वहां निवास करने लगे। तदनन्तर भगवान विष्णु ने उसकी रक्षा हेतु कहा कि इस तरुवर का बिल्व, मालूर, श्रीफल, शाण्डिल्य, शैलूष, शिव, पुण्य, शिवप्रिय, देवावास, तीर्थपद, पापहन, कमलच्छद, जय, विजय, विष्णु, त्रिनयन, वर, धूम्राक्ष, शुक्लवर्ण, संयमी तथा श्राद्धदेव यह 21 नाम होगा। इसके उध्र्व-अधः तथा चारों ओर सौ धनुष पर्यन्त का स्थान तीर्थ होगा। इसका उध्र्वपत्र शंकर, वामपत्र ब्रम्हा तथा दक्षिण पत्र मैं विष्णु हूं। जो इसे पैरों से छुएगा उसकी लक्ष्मी नष्ट होगी। इसका मात्र एक पत्ता भगवान शंकर को प्रदान करने से एक हजार कमल प्रभु को चढ़ाने का फल लाभ होगा। भगवान विष्णु कहते हैं कि इस बिल्ववृक्ष का दर्शन-स्पर्श इसके स्थान की साफ-सफाई करने से पूजन, पत्रचयन करने से शिवदर्शन का फल प्राप्त करेगा। जो बिल्ववृक्ष को साष्टांग प्रणाम करता है, वह मेरा (विष्णु) परमप्रिय वैष्णव होगा।।
सायंकाल, मध्यकाल, द्वादशी, अमावस्या, पूर्णिमा के दिन बिल्वपत्र तोड़ना या चयन करना वर्जित है। बिल्ववृक्ष पर व्यर्थ नहीं चढ़ना चाहिए और न ही व्यर्थ में शाखा तोड़नी चाहिए। बिल्ववत्र 6 वर्ष तक बासी नहीं होती। इसके द्वारा सूर्य तथा गणपति की पूजा नहीं करनी चाहिए, बाकी सभी देवता की पूजा कर सकते हैं। जहां बिल्ववृक्ष के वन हैं, वह स्थान काशी के समान है। जहां पांच बिल्ववृक्ष हैं वहां स्वयं महेश्वर विद्यमान हैं। जहां एक भी बिल्ववृक्ष है, वहां भगवान शंकर तथा विष्णु स्थिर रहते हैं।जिस गृहस्थ के बाग में अपने आप ईशान कोण में बिल्ववृक्ष उत्पन्न होता है, वहां कभी विपत्ति नहीं आती। वाटिका के पूर्व में उत्पन्न विल्ववृक्ष सुखदायक होता है। दक्षिण में उत्पन्न बिल्ववृक्ष भयनाशक तथा पश्चिम में उगा बिल्ववृक्ष सन्तान-संततिवर्धक होता है।
यदि श्मशान, नदी तीर अथवा वन में हो तब वह स्थान सिद्धपीठ होता है। कोई गृहस्थ इस वृक्ष को अपने प्रांगण के मध्य कभी स्थापित न करें। यदि अपने आप उग आए तो उसकी अर्चना भगवान शंकर की तरह करनी चाहिए। चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ तथा आषाढ़ मास में भगवान शंकर को मात्र एक बिल्ववृक्ष प्रदान करने से एक लाख गोदान का फल मिलता है। जो मानव मध्यदिन में बिल्ववृक्ष की प्रदिक्षिणा करता है, उसे तीन बार सुमेरू पर्वत प्रदक्षिणा का फल प्राप्त होता है। जो व्यक्ति इसे बेचता है वह पतित होता है। जो पुण्यात्मा व्यक्ति चैत्रादि चार मास में बिल्ववृक्ष की सिंचाई करता है, उसके पितृगण भी इसी वृक्ष की तरह अभिषिक्त हो जाते हैं।
लोकेन्द्र चतुर्वेदी